कांग्रेस या AAPदिल्ली में इंडिया गठबंधन के टूट का किसे मिलेगा फायदा? “ • ˌ

मई 2024 में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों ने विपक्षी गठबंधन इंडिया के हौसलों को उड़ान दी थी. कांग्रेस सबसे अधिक खुश थी क्योंकि पिछले दस वर्षों में पहली बार राहुल गांधी का नेतृत्त्व कामयाब हुआ था. 2014 और 2019 में तो कांग्रेस को लोकसभा में इतनी सीटें भी नहीं मिली थीं कि वह विपक्ष के नेता का पद भी पा सके.

हालांकि 2024 में उसे 99 सीटें मिल गईं और उसके दामन से यह धब्बा दूर हुआ कि कांग्रेस अब मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन पा रही है. लेकिन कांग्रेस की यह हवाबाजी स्थायी न रह सकी. हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों ने उसकी फिर बुरी गत कर दी.

लोकसभा चुनाव के नतीजों का श्रेय कांग्रेस खुद को दे रही थी पर यह सत्य नहीं है. कांग्रेस की इन 98 सीटों पर जीत के पीछे समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव का राजनीतिक दांव था.

पीडीए के समीकरण को संजीवनी

जब 31 मार्च 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेरठ में अपने चुनाव प्रचार का आग़ाज़ किया था तब उन्होंने भाजपा के लिए 400 पार का नारा दिया था. उनके इस नारे से भाजपा के कार्यकर्त्ता फूल कर कुप्पा हो गए. उधर विपक्षी दलों को समझ नहीं आया कि इसका जवाब कैसे दें.

इसके बाद 14 अप्रैल को अयोध्या से भाजपा के लोकसभा सदस्य लल्लू सिंह ने कहा, कि 400 पार कर लेने से हम संविधान में संशोधन भी कर सकेंगे. क्योंकि 272 सीटें पाने से तो सरकार बनती है लेकिन 400 सीटें मिल गईं तो संविधान में बदलाव भी संभव है.

लल्लू सिंह का यह बयान सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ. उसी क्षण उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने एक ट्वीट किया कि भाजपा की हवा निकालेगा PDA अर्थात् पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वोटर.

अखिलेश का यह बयान इंडिया गठबंधन दलों के लिए संजीवनी साबित हुआ.

सपा ने भी कांग्रेस से दूरी बनाई

लेकिन चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस अपने सहयोगी दलों से बना कर नहीं चल पाई. हरियाणा विधानसभा चुनाव के समय जब हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र में सपा ने तीन-चार सीटें मांगीं तो कांग्रेस नेता भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने कह दिया, यहां सपा को कोई वजूद ही नहीं है. कमलनाथ ने भी अखिलेश यादव के बारे असंसदीय शब्द बोले.

नतीजा यह रहा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा सीटों के उपचुनाव में सपा ने कांग्रेस को मंझवा और फूलपुर सीटें नहीं दीं. जबकि इसके पूर्व लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के साथ आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस क्रमशः पंजाब और पश्चिम बंगाल में नहीं रहे. इसके विपरीत अखिलेश ने कांग्रेस को पर्याप्त सीटें दीं.

खटास पड़ते ही सपा भी इंडिया गठबंधन और ख़ासकर कांग्रेस से छिटकने लगी. दिल्ली विधान सभा चुनाव में सपा और तृणमूल कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल को सपोर्ट करने की घोषणा कर दी है. जबकि यहाँ मैदान में कांग्रेस भी है.

अखिलेश यूपी वालों को अपने जैसे लगते हैं

भले दिल्ली में सपा या तृणमूल का कोई आधार वोट न हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिये कि पूर्वी दिल्ली में मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है. इसी तरह चितरंजन पार्क में बंगाली वोटर काफी है. दिल्ली में 1991 से पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट इसी समुदाय के पास रही है.

इसी तरह विधानसभा में उत्तर प्रदेश और बंगाल के लोग जीतते भी रहे हैं. यद्यपि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाली मूल के वोटर अपनी सुविधा से भाजपा या कांग्रेस को वोट करते हैं. लेकिन सपा नेता अखिलेश यादव का नाम भी उन्हें अपने जैसा प्रतीत होता है.

कांग्रेस को इस पर विचार करना चाहिए कि अखिलेश यादव, ममता बनर्जी से बना कर वह क्यों नहीं रख पा रही है. भाजपा अपने छोटे सहयोगी दलों का भी पूरा ख़्याल रखती है. छह सीटों वाले चिराग़ पासवान को भी कैबिनेट में जगह दी गई.

अरविंद केजरीवाल से भी दूरी

दिल्ली चुनाव में सपा और तृणमूल भी इंडिया गठबंधन से दूर हो गए उधर बिहार में तेजस्वी यादव तो रोज इस गठबंधन की अवहेलना करते हैं. उन्होंने कहा है कि इंडिया गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए था. इससे यह साफ़ है कि इंडिया गठबंधन सिर्फ फ़ौरी तौर लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए बना था.

इस गठबंधन के सबसे बड़े दल कांग्रेस के तेवर ऐसे हैं कि भविष्य में कौन उसके साथ रह पाएगा. इंडिया गठबंधन के दलों के मध्य आपसी संबंध इतने कटु हो गए हैं कि अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि कांग्रेस तो हमारे सामने कहीं है ही नहीं. वे अपना मुक़ाबला सिर्फ भाजपा को मानते हैं.

उनके साथ ही दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी का कहना है कि एक तरफ़ हम हैं और दूसरी तरफ़ गाली-गलौच पार्टी. इस गाली-गलौच पार्टी से उनका आशय भाजपा से है. और तो और कांग्रेस के नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने तो स्पष्ट कहा है कि दिल्ली के चुनाव में अरविंद केजरीवाल ही जीतेंगे.

बिखर गया है इंडिया गठबंधन

अरविंद केजरीवाल तो स्वयं कह रहे हैं कि इंडिया गठबंधन अब बिखर चुका है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी को न सिर्फ़ सपा और तृणमूल सपोर्ट कर रहे हैं बल्कि सूत्र बता रहे हैं कि उद्धव गुट की शिव सेना भी आम आदमी के साथ हैं.

इन सबका दिल्ली में कोई ख़ास वोट बैंक नहीं है लेकिन इन सबके केजरीवाल के साथ आ जाने से यह तो स्पष्ट हो गया कि इंडिया गठबंधन अब सिर्फ कागजों में रह गया है. इंडिया गठबंधन की शुरुआत लोकसभा चुनाव से थोड़ा पहले हुई थी. इसके बाद बिखरने के संकेत तो हरियाणा चुनाव के वक्त से ही शुरू हो गई थी.

हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को बहुत अच्छी सफलता मिली. इंडिया गठबंधन के दल कांग्रेस नेताओं के बड़बोले पन को इसका कारण मानते रहे हैं. उनका कहना है, जहां कांग्रेस ताकतवर होती है वहाँ सहयोगी दलों की वह उपेक्षा करती है.

क्षेत्रीय दलों की लड़ाई कांग्रेस से

निश्चय ही भाजपा को इस गठबंधन के बिखरने का लाभ मिलेगा. जब इंडिया गठबंधन बना था तब इसमें 28 राजनीतिक दलों की सहमति थे. इन सबने सर्वसम्मति से इसे बनाया था. लेकिन धीरे-धीरे दल इससे अलग होने लगे.

नीतीश कुमार तो तीन बैठकों के बाद ही इसे छोड़ कर भाजपा के सहयोगी दल बन गए. इस तरह उनकी पारी एनडीए के साथ शुरू हुई. इसके बाद आप और टीएमसी भी अपनी सुविधा से तालमेल करने लगे. इन दोनों की सीधी लड़ाई ही कांग्रेस से थी, इसलिए इंडिया गठबंधन में कांग्रेस से बिदकने वाले दलों की कमी नहीं थी.

इसकी एक बड़ी वजह तो कांग्रेस नेताओं के अहंकारी बयान थे. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे और पार्टी के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी भी इन बड़बोलों पर लगाम नहीं लगा सके. इसलिए एक-एक कर सारे दल इंडिया गठबंधन से दूर जाने लगे.

संदीप दीक्षित के तेवरों से नुकसान

कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल के सामने नयी दिल्ली से संदीप दीक्षित को खड़ा किया है और भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा को. अरविंद केजरीवाल चूंकि संदीप की मां शीला दीक्षित पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर अरविंद केजरीवाल 2013 में सत्ता में आए थे. वह सरकार मात्र 49 दिन चली और इसके बाद चुनाव 2015 में हुए. इस चुनाव में उन्होंने कांग्रेस का दिल्ली से सफ़ाया कर दिया था.

70 में से 67 विधानसभा सीटें उनके खाते में आई थीं. 2020 का चुनाव भी अरविंद ने जीता और कांग्रेस की बुरी गत की. इसीलिए संदीप दीक्षित आरोप लगा रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल भाजपा के एजेंट हैं. उधर आम आदमी पार्टी यही आरोप कांग्रेस और संदीप दीक्षित पर लगा रही है. इन दोनों के बीच का युद्ध इंडिया गठबंधन को और कमजोर कर रहा है.

देशव्यापी वोट बैंक ही घटक

कांग्रेस की लोकसभा सीटें भले कम हों और देश में कुल तीन राज्यों में उसकी सरकार हो मगर इसमें कोई शक नहीं कि आज भी कांग्रेस का वोटर देश में हर जगह है. और काफ़ी बड़ी संख्या में है. यही बात कांग्रेस को मज़बूत भी करती है और कमजोर भी.

हर राज्य और संघ शासित क्षेत्र में क्षेत्रीय दलों की मुख्य भिड़ंत कांग्रेस से होती है. लोकसभा में तो कांग्रेस के साथ गठबंधन चल सकता है किंतु विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के समक्ष मुख्य चुनौती ये क्षेत्रीय दल ही होते हैं.

कांग्रेस के बड़बोले नेता अपनी तरफ़ से कोई विनम्रता दिखाने को राज़ी नहीं होते इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के नेतृत्त्व में बना कोई गठबंधन टिकाऊ नहीं होता. हालाँकि 2004 से 2014 तक कांग्रेस की अगुआई में बना संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) लंबा चल गया था. मगर अब इंडिया तो जुलाई 2023 में बना और छह महीने में ही बिखरने लगा.