
सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने आज बुधवार को (8 अक्टूबर) एक ऐसा फैसला सुनाया जो भविष्य में एक मिसाल बन सकता है. कोर्ट ने अपनी मां की हत्या के आरोप में दोषी ठहराए गए एक शख्स को बरी कर दिया है. कोर्ट ने पाया कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था और अभियोजन पक्ष संदेह से अलग हटकर अपराध साबित करने में विफल रहा. कोर्ट ने नीलेश बाबूराव गित्ते बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में यह फैसला दिया है.
दरअसल महाराष्ट्र के अंबाजोगाई के तालोनी गांव में साल 2010 में हुई इस घटना में पुलिस को एक गुमनाम सूचना मिली थी कि एक महिला की संदिग्ध मौत हुई है. जब पुलिस मौके पर पहुंची, तो भीड़ शव का जल्दबाजी में अंतिम संस्कार करने की कोशिश कर रही थी. पुलिस ने जब हत्या का शक जताया, तो मौके पर मौजूद भीड़ वहां से भाग गई. जांच के बाद मृतका सुनीता के बेटे निलेश को गिरफ्तार कर आरोपी बनाया गया था.
ट्रायल कोर्ट ने निलेश को सुनाई थी उम्रकैद की सजा
अभियोजन ने दावा किया कि आरोपी मां के साथ रहता था और उसने जल्दबाजी में दाह संस्कार की व्यवस्था की थी, जो हत्या का संकेत माना गया. ट्रायल कोर्ट ने निलेश को उम्रकैद की सजा सुनाई, जिसे बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी बरकरार रखा था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दो-जजों की बेंच जस्टिस के.वी. विश्वनाथन और जस्टिस के. विनोद चंद्रन ने कहा कि इस मामले की मूल धारणाएं ही संदिग्ध हैं और यह तक स्पष्ट नहीं है कि मौत हत्या थी या आत्महत्या.
अपीलकर्ता-आरोपी को झूठा फंसाया गया
कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता-आरोपी को झूठा फंसाया गया, क्योंकि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि मृतक की मृत्यु किसी भी तरह से हत्या की प्रकृति की थी, जबकि मेडिकल साक्ष्य से पता चलता है कि मृतक सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित है और उसकी मृत्यु आत्महत्या से हुई हो सकती है, एक ऐसा तथ्य, जिसे अभियोजन पक्ष ने खारिज नहीं किया.
बेंच ने कहा, डॉक्टर की गवाही के आधार पर हमें गंभीर संदेह है कि मृत्यु वास्तव में हत्या थी या नहीं. डॉक्टर की स्पष्ट स्वीकारोक्ति से यह संभावना पूरी तरह नकारी नहीं जा सकती कि यह आत्महत्या का मामला हो. कोर्ट ने यह भी कहा कि पुलिस ने यह जांच ही नहीं की कि भीड़ में से किसने अंतिम संस्कार की व्यवस्था की थी, और कोई भी गवाह यह नहीं कह सका कि आरोपी निलेश घटनास्थल पर मौजूद था.
मेडिकल रिपोर्ट भी हत्या की पुष्टि नहीं करती
अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि आरोपी या उसके किसी रिश्तेदार को उस समय दाह-संस्कार स्थल पर देखा गया था. मेडिकल रिपोर्ट भी हत्या की पुष्टि नहीं करती. बरामदगी और कथित सबूत भरोसेमंद नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निचली अदालतों ने साक्ष्यों की गलत व्याख्या की और अभियोजन की कहानी में भारी खामियां हैं. कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए दोषसिद्धि और सजा दोनों को रद्द कर दिया.