एक कदम पीछे तो दो कदम आगे… 100 साल में कैसे शक्तिशाली होता गया RSS, यूं ही नहीं कहा जाता फीनिक्स पक्षी

एक कदम पीछे तो दो कदम आगे... 100 साल में कैसे शक्तिशाली होता गया RSS, यूं ही नहीं कहा जाता फीनिक्स पक्षी

100 सालों से लगातार समृद्ध हो रहा है संगठन

RSS के बारे में अक्सर आशंकाएं जताई जाती हैं कि बस उसका अंत समय आ गया है, अगले ही क्षण वह और ताकतवर हो कर प्रकट हो जाता है. लेनिन का एक सिद्धांत है, एक कदम पीछे, दो कदम आगे! RSS ने अपने धुर विरोधी मार्क्सवादियों के इस सिद्धांत पर पूरी तरह अमल किया है. इसीलिए संघ पिछले सौ सालों से लगातार समृद्ध हो रहा है. आज देश में RSS जैसा संगठन और कोई नहीं है. संगठित, अनुशासित और नियमित. वह भी तब जब उसके शत्रु चारों तरफ फैले हैं. इसकी वजह उसकी अपनी आइडियोलॉजी के प्रति समर्पण है. उसके कार्यकर्ता कभी हताश नहीं होते. वे कुछ समय के लिए दब भले ही जाएं, किंतु फिर जब प्रकट होते हैं तो और शक्ति के साथ प्रकट होते हैं. इन गुणों के चलते RSS को फीनिक्स पक्षी कहा जा सकता है जो अपनी ही राख से पुनः प्रकट होता है.

पूरे सौ वर्ष के इतिहास में तीन मौके ऐसे आये जब RSS पर प्रतिबंध लगाया गया. पहले गांधी हत्या मामले में, फिर इमरजेंसी के समय 1975 में, और तीसरी बार 1992 में जब बाबरी मस्जिद ढहायी गई. लेकिन तीनों बार RSS के खिलाफ सरकार कोई ठोस सबूत नहीं दे पाई. न तो गांधी हत्याकांड में RSS की संलिप्तता का, न ही 1975 में इंदिरा गांधी सरकार के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचने का, न ही बाबरी मस्जिद ढहाये जाने में RSS का कोई प्रत्यक्ष हाथ साबित हो सका. इस वजह से हर बार RSS के ऊपर से प्रतिबंध हटाना पड़ा. यहां तक कि अक्टूबर 1962 में चीन से पराजय के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में 26 जनवरी की परेड में RSS के दस्ते को भी शामिल किया था. RSS शुरू से ही अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता रहा है. कभी भी RSS ने स्वयं को हिंदू संगठन नहीं कहा.

डॉ. हेडगेवार कांग्रेस से निकले और RSS की स्थापना की

RSS के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार अवश्य हिंदू समाज की एकता चाहते थे, लेकिन इसके लिए हिंदू महासभा पहले से कार्यरत थी. लाला लाजपत राय हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे. 1910 में जब मेडिकल की पढ़ाई के लिए डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार कलकत्ता गए तब वहां वे अनुशीलन समिति से भी जुड़े थे. इस समिति के लोग बंकिम चंद्र चटर्जी से प्रभावित थे. 1915 में नागपुर लौटने के बाद डॉ. हेडगेवार कांग्रेस में शामिल हो गए. वे विदर्भ प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव भी रहे थे. 1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में उन्होंने गिरफ्तारी भी दी थी. एक साल वे जेल में भी रहे. वे कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक की लाइन के अनुयायी थे और पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वालों में प्रमुख थे. जब वे जेल से रिहा हुए तब पंडित मोतीलाल नेहरू, हकीम अजमल खां उनका स्वागत करने वालों में से थे.

एक नये रूप का भारतीय समाज

कांग्रेस में रहते हुए उन्हें महसूस हुआ कि कांग्रेस पार्टी पूर्ण स्वराज्य की बात पूरी शक्ति से इसलिए नहीं कर पा रही है क्योंकि कांग्रेस समाज में फैले द्वेष और जातिवाद को समाप्त नहीं कर पा रही. उधर अंग्रेज मुसलमानों को लालच देकर शेष देशवासियों (खासकर हिंदुओं) के विरुद्ध एक ऐसा माहौल तैयार कर रहे हैं, जिसमें आज़ादी के बाद हिंदू समुदाय की दोयम दरजे की हैसियत होगी. इसलिए सबसे ज़रूरी है शांत रहकर भारत की एकता, अखंडता और जात-पात विहीन तथा अंतर-धार्मिक विद्वेष से ऊपर उठे समाज की संरचना. इसलिए 27 सितंबर 1925 को इसके लिए एक बैठक मोहिते का वाड़ा, नागपुर स्थित डॉ. हेडगेवार के घर पर हुई. उस दिन विजयादशमी थी. इसलिए विजयादशमी को RSS अपना स्थापना दिवस मनाता है. इस मीटिंग के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना हुई.

हर प्रतिबंध के बाद और भी शक्तिशाली

लेकिन डॉ. हेडगेवार आजादी की लड़ाई से कभी दूर नहीं हुए. 1930 में गांधी जी के नमक सत्याग्रह में शरीक हुए. कुछ समय के लिए उन्होंने RSS प्रमुख का पद अपने सहयोगी डॉ. परांजपे को सौंप दिया और वे इस आंदोलन में अपने बहुत सारे सहयोगियों के साथ शामिल हुए और जेल भी गए. 1929 की लाहौर कांग्रेस में जब पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास हुआ और 26 जनवरी 1930 को तिरंगा फहराने का आह्वान हुआ. तब डॉ. हेडगेवार के निर्देश पर 30 जनवरी को RSS की सभी शाखाओं में तिरंगा फहराया गया. उसी दिन पूर्ण स्वराज्य के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संकल्प लिया गया. RSS की कितनी भी आलोचना की जाए, उस पर प्रतिबंध लगाने की कई कोशिशें हुईं, लेकिन हर प्रतिबंध के बाद वह और ताकतवर हुआ. यही कारण है कि RSS आज विश्व का सबसे बड़ा संगठन है.

विरोधियों को निपटाने के चक्कर में RSS पर बैन

मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे डीपी मिश्र ने 1948 में RSS पर प्रतिबंध लगाए जाने के बारे में अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कांग्रेस का एक वर्ग अपने विरोधियों को निपटाना चाहता था. उनका इशारा प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की तरफ था. गांधी हत्या केस में RSS पर 2 फरवरी 1948 को प्रतिबंध लग गया. परंतु 16 महीने की माथापच्ची के बाद भी जब नाथूराम गोडसे और RSS के बीच कोई संबंध का सुराग नहीं मिला तब गृह मंत्री सरदार पटेल ने नेहरू जी को लिखा कि RSS के ऊपर से बैन हटा लिया जाए. अंततः 12 जुलाई को RSS से प्रतिबंध हटा लिया गया. इसके बाद RSS और ताकतवर हुआ. चीन युद्ध के समय RSS का योगदान प्रशंसनीय रहा, इसलिए प्रधानमंत्री नेहरू ने RSS के संगठित युवाओं की एक झांकी 26 जनवरी को निकलवाई.

जनसंघ की स्थापना में सहयोग

गांधी हत्या के समय माधव सदाशिव राव गोलवलकर उर्फ गुरू जी RSS प्रमुख थे. इसलिए गुरू जी समेत RSS के कई कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए थे. मगर गोलवलकर को 6 अगस्त 1948 को रिहा कर दिया गया. तथा उन्हें नागपुर में ही रहने को कहा गया. इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और गृह मंत्री सरदार पटेल से पत्राचार किया और आग्रह किया कि RSS के ऊपर से प्रतिबंध हटा लिया जाए. लगभग एक साल बाद जुलाई 1949 को RSS पर से प्रतिबंध हटा लिया गया. उसके बाद तो RSS का क्षिप्र गति से प्रसार हुआ और नेहरू कैबिनेट में शामिल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया तब वे नागपुर जा कर गुरू जी से मिले और उनसे मदद मांगी. गुरू जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अपने पांच कार्यकर्त्ता भी दिए. इनमें से दीन दयाल उपाध्याय और बलराज मधोक प्रमुख थे.

इमरजेंसी के दौरान भी प्रतिबंध

25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया और CPI को छोड़ कर सभी विपक्षी नेता गिरफ़्तार कर लिए गए. जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी समेत जनसंघ के मातृ-संगठन RSS के तमाम कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया. इनमें RSS प्रमुख भाऊराव देवरस भी थे. हालांकि उन्होंने कहा कि RSS कोई राजनीतिक संगठन नहीं है और उसके कार्यकर्ता रचनात्मक कार्यों में संलग्न हैं. इसलिए कुछ महीनों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया. किंतु RSS के आनुषांगिक संगठनों के नेताओं को नहीं. अलबत्ता RSS की शाखाओं पर प्रतिबंध लगा रहा. 1977 में आपातकाल हटने के बाद कांग्रेस का राज भी समाप्त हो गया. जनता पार्टी सरकार में RSS खूब एक्टिव रही और उसके स्वयंसेवक भी बढ़े.

बाबरी ढहाने में कोई प्रत्यक्ष हाथ नहीं

इसमें कोई शक नहीं कि अयोध्या में राम मंदिर बनाया जाना RSS की प्राथमिकता में था. परंतु 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाये जाते समय RSS का हाथ होने का सबूत सरकार को नहीं मिला. यद्यपि विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के नेताओं का उससे जुड़ाव रहा है और लाल कृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा से भी कार सेवकों के हौसले बढ़े. लेकिन कोर्ट को पुख़्ता सबूत चाहिए जो सरकार नहीं जुटा सकी. यह प्रतिबंध भी छह महीने से अधिक नहीं टिक सका. इसकी वजह है RSS का अपना रणनीतिक चातुर्य है. जैसा कि 2018 में RSS प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने कांग्रेस मुक्त भारत के आह्वान पर कहा था कि यह संघ की भाषा नहीं है. संघ राष्ट्र भक्ति की बात करता है. हर वह व्यक्ति हमारे साथ है जो राष्ट्र के प्रति समर्पित है. RSS के क्षिप्र प्रसार के मूल में यही भावना है.

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