
राम के चरित्र को जीवन में उतारना जरूरी
जब मैं कोलकाता में जनसत्ता का संपादक था तब पहले ही दशहरा के दो रोज पहले पंजाबी बिरादरी के योगेश आहूजा मेरे पास आए. उनका आग्रह था कि वे दशहरे के रोज ब्रिगेड मैदान में राम लीला करवाना चाहते हैं, इसलिए मैं उसमें मदद करूं. एक ही दिन में वह भी दोपहर बाद 2 से 7 के बीच राम के जन्म से लेकर रावण दहन तक मंच पर उतार देना असंभव था. मैंने कहा, यह तो संभव नहीं है. बोले, बिलकुल संभव है आप राम कथा को कट करिये. बड़ा मुश्किल काम था लेकिन कोलकाता में उत्तर भारत की इस नाटिका का प्रदर्शन तो होना चाहिए. वर्ना हमारे बच्चे भूल जाएंगे राम लीला!
भाटिया साहब ने कहा और मिसेज़ चोपड़ा पीछे पड़ गईं. मैंने कहा, ठीक है देखते हैं. लेकिन राम के पूरे जीवन को पांच घंटे में समेटना आसान नहीं है. पर आहूजा ने सुभाष चक्रवर्ती की सहमति और अनुमति पत्र दिखाया.
चार घंटे में राम के चरित्र को मंच पर उतार देना
सुभाष चक्रवर्ती पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के परिवहन मंत्री थे. उन्हें मुख्यमंत्री ज्योति बसु का करीबी बताया जाता था. मैंने उसी समय कोलकाता में ईस्टर्न रेलवे के मुख्य राजभाषा अधिकारी सैयद महफूज़ हसन खां पुंडरीक को बुलाया. उनसे कहा, आप राम लीला की ऐसी नाटिका लिखिये जो बस चार घंटे में संपन्न हो जाए. पुंडरीक जी राम कथा के मर्मज्ञ थे और चित्रकूट के रामायण मेले में अक्सर जाया करते थे. मेरी उनसे वहीं पहली भेंट हुई थी.
उन्होंने कहा, राम विवाह से शुरू करें और रावण वध पर आकर समाप्त कर देंगे. राम जी विष्णु भगवान के अवतार हैं और यह सबको ज्ञात है. इसलिए उनके जन्म को दिखाने का कोई मतलब नहीं. उन्होंने एक लाजवाब नाटिका तैयार की. राम विवाह, और फिर राम वनवास, सीता हरण तथा इसके बाद रावण वध.
देवी दुर्गा के देश में रामावतार
इस तरह दो बजे शुरू हुई राम लीला 6.30 पर समाप्त हो गई. सुभाष चक्रवर्ती और कोलकाता पुलिस के कमिश्नर दिनेश वाजपेयी (जो बाद में पश्चिम बंगाल पुलिस के महानिदेशक हुए) इस लीला को देखने के लिए पधारे. मंत्री महोदय ने कलाकारों को प्रोत्साहित करते हुए पुरस्कार भी वितरित किए. इसके बाद रावण का पुतला जलाया गया. यह राम लीला समाज के अंदर का वैविध्य दिखाने के लिए आवश्यक थी. क्योंकि शारदीय नवरात्र में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू के सिवाय और कहीं राम लीला नहीं होती.
देश के बाक़ी हिस्से में दुर्गा पूजा के अलग-अलग रंग दिखाई पड़ते हैं. कहीं महिषासुर मर्दिनी की स्तुति तो कहीं-कहीं लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की. एक ही त्योहार की छटा भिन्न-भिन्न. इसलिए उधर कोई राम लीला जानता ही नहीं था.
रावण दहन की लकीर पीटने से क्या लाभ!
इसी तरह दशहरा में रावण दहन की परंपरा भी सिर्फ उत्तर भारत में है. अलबत्ता दशहरा में आयुध या शस्त्र पूजन लगभग सभी जगह होता है. इसे विजयादशमी भी कहते हैं. हमारे पुराणों में ऐसी मान्यता है कि इसी दिन राम ने रावण का वध किया था. कहीं-कहीं इसे महिषासुर वध के रूप में मनाते हैं. यानी हर जगह बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में. वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है किंतु उसके अच्छे-बुरे पहलुओं को समझने का प्रयास कभी नहीं किया गया.
राम के चरित्र का उज्ज्वल पक्ष क्या है और स्याह पक्ष कौन-सा है, जब तक यह नहीं समझा जाएगा, तब तक इस तरह लकीर पीटने से क्या फायदा! नौ दिन तक राम लीला हुई और दसवें दिन रावण फुंक गया. बस किस्सा खत्म! राम के चरित्र का एक अत्यंत उज्ज्वल पक्ष हम नहीं देख पाते और वह है राम के द्वारा शत्रु पक्ष के प्रति अपनायी गई नीति.
अनजान देश में मित्र बनाना
राम जब लंका पर चढ़ाई के उद्देश्य से अपने अभियान पर निकले तो वे निपट अकेले थे. उनकी पत्नी का हरण हो गया था और उनके साथ एक छोटा भाई लक्ष्मण था, जो बात-बात पर उत्तेजित हो जाता. ऐसे व्यक्ति को एक अनजान देश में मित्र तलाश करना मुश्किल होता है. वह भी ऐसे देश में जिसका विधान उनके क्षेत्र से सर्वथा अलग हो. उनकी नैतिक मर्यादाएं भिन्न थीं और युद्ध की नीतियां भी.
किष्किन्धा से लेकर लंका तक जादू-टोना, टोटका और द्वन्द युद्ध का क्षेत्र था. तीर, कमान और धनुष चलाने की कला से वे अनजान थे. वे या तो परस्पर कुश्ती लड़ते, गदा युद्ध करते अथवा धारदार हथियार से वार करते. ये लोग मायावी तो थे किंतु दूर से शत्रु पर निशाना कैसे साधा जाए, यह वह नहीं जानते थे. राम जब वानरों से मित्रता करते हैं तो उन्हें तब के इन आधुनिक शस्त्रों को चलाना भी सिखाते हैं.
शत्रु देश में अपने सहायकों को खोज लेना
राम का यह चरित्र एकाएक उन्हें शत्रुओं के प्रति उदार बना देता है. और इस तरह शत्रु देश में वे अपने मित्र तलाश भी लेते हैं. पिछड़े और वंचित तबके के प्रति राम का व्यवहार दुराग्रही नहीं है. शबरी के वे जूठे बेर खाते हैं और जटायु का विधिवत अंतिम संस्कार करते हैं. हमें अपने पौराणिक चरित्रों को ऐसे उच्च मूल्यों के संदर्भ में लेना चाहिए. लेकिन राम के चरित्र के साथ शम्बूक वध भी जुड़ा और स्त्रियों के प्रति दोयम दर्जा अपनाने का भाव भी.
हर रामायण में वे प्रजा वत्सल और समदर्शी और न्यायी कहे गए हैं, फिर उनका चरित्र शूद्र व स्त्री के प्रति भेद-भाव वाला कैसे रहा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. इस सच्चाई को स्वीकार करिए कि राम के आदर्श आज के लिए उपयुक्त नहीं हैं. हमें उन्हीं को लेना चाहिए जो चिरंतन सत्य हैं. राम के ऐसे आदर्श आज भी पूज्य हैं.
रावण के प्रति भी सम्मान का भाव
राम की यह मर्यादा ही उन्हें भगवान का रूप देती है. वे सर्वेसर्वा तो हैं. मगर कहीं भी वे अपनी नहीं चलाते. यहां तक कि रावण के भाई विभीषण को शरण दी जाए या नहीं इसके लिए भी वे सुग्रीव, अंगद, जामवंत और हनुमान से विचार विमर्श करते हैं. रावण की मृत्यु के बाद वे खुद दुःखी होते हैं और कहते हैं, आज एक महान विद्वान इस दुनिया से प्रस्थान कर रहा है. इसलिए हे लक्ष्मण तुम उसके पास जाओ और उससे क्षमा मांग कर विनीत भाव से उससे गुरु-ज्ञान लो. वे अपने परम शत्रु के प्रति भी ऐसा आदर भाव दिखाते हैं. यही उनका बड़प्पन है.
महर्षि वाल्मीकि ने अपनी राम कथा में लिखा है- इक्ष्वाकुवंश प्रभवो रामो नाम जनैः श्रुत: नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान धृतिमान वशी! अर्थात् इक्ष्वाकु वंश में पैदा हुए राम धैर्यवान, तेजस्वी और जितेंद्रिय हैं. उन्हें लोक में राम के नाम से जाना गया.
रामायण के इस पक्ष को जीवन में उतारें
राम लौकिक और अलौकिक दोनों हैं. वे भारतीय सामंत व्यवस्था में आदर्श के प्रतीक हैं. समाज में जब राजतंत्र का उदय हो रहा था, तब महर्षि वाल्मीकि ने एक ऐसे राजा की कल्पना की जो मर्यादा पुरुषोत्तम हो. एक ऐसा राजा जो मनुष्यों में श्रेष्ठ गुणों का प्रतीक है. वह एक पत्नीव्रता है और अपनी पत्नी की रक्षा के लिए वह अपना सर्वस्व दांव पर लगा देता है.
वह पिता की आज्ञा से इतने विशाल और वैभवशाली राज्य को ठुकरा देता है. अपनी पत्नी के साथ जंगल चला जाता है. उसका छोटा भाई साथ चलता है. लेकिन जिस भाई को राज्य मिलता है, वह भी राज्य को ठोकर मार देता है तथा अपने बड़े भाई के वनवास की अवधि को पूरा होने का इंतजार करता है. यह एक ऐसे राजा की कहानी है, जो अपने उच्च चरित्र के चलते ईश्वर का स्थान पा गया.