India-Pakistan partition: लाहौर…इस शहर की तारीख अराजक रही है. गजनवी, मंगोल, मुगल, अफगानी, सिख और फिर ब्रितानिया. लगभग हजार साल में इस शहर ने दर्जनों बार अपना लिबास बदला. मार काट, हमला, दंगे…
कई बार ये शहर रौंदा गया, इस शहर की मिट्टी को रौंदने वाले तो इतिहास में फना हो गए, लेकिन इस नगर ने अपनी अलमस्ती बचा ली. इसलिए कहने वाले कहते हैं कि ये शहर नहीं है एक लत है. इस शहर की ओबा हवा में वो मतवालापन है.
साहित्यकार असगर वजाहत ने अपने नाटक का नाम जब ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जनम्याई नई’ (जिसने लाहौर नहीं देखा वो पैदा ही नहीं हुआ) दिया तो उन्होंने लाहौरी तहजीब को बिरादर, सहोदर और मोहब्बत की वो तरावट देने की कोशिश की जो बंटवारे के वक्त सूख सा गया था. असगर वजाहत ही नहीं कई अदीबों जैसे राजेंद्र बेदी, कृश्न चंदर और सआदत हसन मंटो ने मुल्क के तक्सीम होने पर इंसानी संवेदनाओं को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया.
1947 में सर सिरील रेडक्लिफ ने अविभाजित हिन्दुस्तान के नक्शे पर कुछ लाइनें खिंची इसी के साथ ही लाखों लोगों की जिंदगी में कभी न मिटने वाली लकीरें उकेर दी गईं. फिर जिनकी सुबहें अमृतसर में अरदास और शामें लाहौर की मंडियों में तिजारत करते गुजरतीं उनके लिए महज 50 किलोमीटर का ये दायरा कभी न खत्म होने वाला फासला बन गया. ये फासला तारीख में जख्म बनकर रिसता रहा.
पंजाब का साझा इतिहास दो भागों में बंट गया
17 अगस्त 1947 को ये ऐलानिया तौर पर स्थापित हो गया कि लाहौर पंजाब से अलग हो गया है. कहा जाता है कि तब पाकिस्तान के हिस्से कोई मुकम्मल शहर न आ रहा था, इसलिए इसकी भरपाई लाहौर से की गई. इसी के साथ पंजाब का साझा इतिहास दो भागों में बंट गया और वजूद में आए दो शब्द. चढ़दे पंजाब और लहंदे पंजाब. जी हां, हिंदी भाषियों के लिए इसका अर्थ जानना थोड़ा कठिन है. लहंदे पंजाब का अर्थ है पाकिस्तान का पंजाब और चढ़दे पंजाब का मतलब भारत के हिस्से में आया पंजाब.
लाहौर के पंजाब से अलग होने की पटकथा क्या है? इसके किरदार कौन कौन हैं? चलिए उन दस्तावेजों को पलटते हैं जब इतिहास हमारे वर्तमान की कहानी लिख रहा था.
लाहौर रावी और वाघा नदी के तट पर स्थित एक खूबसूरत शहर है. लाहौर का जिक्र होता है और याद आते हैं भगवान राम के पुत्र लव, किवदंतियां है कि उन्हीं ने इस शहर को बसाया और संवारा. फिर याद आते हैं राजा रणजीत सिंह, लाला लाजपत राय, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव. साइंस की चर्चा करें तो इस शहर दो ऐसे लोगों को नोबेल पुरस्कार मिला जिनका ताल्लुक भारत से था. ये थे डॉ हरगोविंद खुराना और डॉ सुब्रमण्यम चंद्रशेखर.
अब जरा सोचिए, साझी विरासत वाले इस लाहौर का पाकिस्तान में चला जाना पंजाब समेत भारत के लोगों के लिए कैसे एहसास लेकर आया होगा?
भारत ने जैसे ही अंग्रेजी सत्ता का विरोध करना शुरू किया, अपने मिजाज की वजह से लाहौर इसका केंद्र रहा. लाहौर ही वो शहर था जहां से कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया था. 31 दिसम्बर 1929 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ. इसी ऐतिहासिक अधिवेशन में कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ का घोषणा-पत्र तैयार किया और ‘पूर्ण स्वराज’ को कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया.
भारतीय उपमहाद्वीप का प्रस्थान बिंदू बना लाहौर
लेकिन 11 साल गुजरते गुजरते हिन्दुस्तान की राजनीति में मुस्लिम लीग ने अपने पैर जमा लिए थे. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस लाहौर से 1929 में कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग की थी उसी लाहौर से 23-24 मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर प्रस्तावना को पेश किया. इस प्रस्तावना में ब्रिटिश भारत के उत्तर पश्चिमी पूर्वी क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए स्वायत्त और संप्रभु प्रांतों की मांग की गई. मुस्लिम लीग की यही मांग कुछ ही दिनों में पाकिस्तान नाम के अलग देश के मांग के रूप में सामने आ गई. इस तरह से लाहौर आजादी से बहुत पहले भी भारतीय उपमहाद्वीप का प्रस्थान बिंदू बन गया था.
1945 में ब्रिटेन में चुनाव हुआ विंस्टन चर्चिल की हार हुई और सत्ता लेबर पार्टी के एटली को मिली. इसी के साथ ब्रिटिश भारत में भी चुनाव हुए. अब तक साफ हो चुका था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पूरे संपूर्ण भारत की आजादी की मांग कर रही थी, जहां केंद्र शक्तिशाली रहता. ठीक इसके विपरित मुस्लिम लीग भारत के विभाजन पर अड़ी थी.
1947 में लाहौर में जन्मे स्वीडन के राजनीतिक शास्त्र के प्रोफेसर इश्तियाक अहमद कहते हैं कि इस समय तक पंजाब के सिखों ने भी अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था. वे धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा नहीं चाहते थे, लेकिन अगर बंटवारा होता भी है तो वे पंजाब के सिख बहुल जिलों के साथ भारत में जाना पंसद करेंगे. इश्तियाक अहमद के अनुसार उस समय पंजाब के 29 जिलों में 12 जिलों में गैर मुस्लिम बहुसंख्यक थे.
88 सीटों में सरकार बनती थी, 86 मुस्लिमों के लिए रिजर्व थी
इश्तियाक अहमद ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी किताब The Punjab bloodied partitioned and cleansed में तात्कालिक घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है. पंजाब में चुनाव हुए, यहां की विधानसभा में 175 सीटें थीं. इनमें से 86 सीटें मुस्लिमों के लिए रिजर्व थीं. जबकि सरकार बनाने के लिए 86 सीटें चाहिए थी. उस समय पंजाब में मुस्लिमों की आबादी 57 प्रतिशत थी. सवाल यह है कि जिस विधानसभा में 88 सीट में सरकार बनती हो वहां 86 सीटें एक समुदाय के लिए कैसे आरक्षित कर दी गई थी?

जवाहरलाल नेहरू (बाएं), सिरिल रैडक्लिफ (मध्य में) और जिन्ना (दाएं) 1947 में विभाजन की रूपरेखा पर चर्चा के लिए आयोजित एक बैठक में.
कांग्रेस के लिए ये चुनाव जीतना इसलिए जरूरी था क्योंकि वो बता सके कि मुस्लिम लीग मुसलमानों की प्रतिनिधि नहीं है, जबकि मुस्लिम लीग को ठीक इसके उलट साबित करना था. खैर चुनाव के नतीजे आए. मुस्लिम लीग चाहे दावे जो करे लेकिन इस चुनाव में उसे बहुमत नहीं मिला, लेकिन 73 सीटें जीतकर मुस्लिम लीग ने जिन्ना के विभाजनकारी इरादों को ताकत दे दी. कांग्रेस के खाते में 50 सीटें आई, पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी को 18 सीट मिले, अकाली दल को 23.
जोड़तोड़ के बाद कांग्रेस की मदद से पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी के सर खिजर टिवाना ने यहां गठबंधन की सरकार बनाई. लेकिन ये सरकार चल नहीं पा रही थी. दूसरे विश्वयुद्ध में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार को समर्थन नहीं दिया लेकिन जिन्ना अंग्रेजों को सपोर्ट दे रहे थे और भारत में मनमानी कर रहे थे. इतिहासकार इश्तियाक अहमद कहते हैं कि मुस्लिम लीग ने इस चुनाव मुसलमानों की भावनाओं का खूब शोषण किया. चुनाव पूरी तरीके से कम्युनल चुनाव हुए. पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी के सिख नेता सर खिजर टिवाना की मां-बहनों को लेकर नारे बनाए गए.
इस समय एक और बात हुई. कांग्रेस कह चुकी थी कि आजादी मिलने पर वह जमींदारी का अंत करेगी इससे भड़के पंजाब और संयुक्त बंगाल में कई जमींदार मुस्लिम लीग में शामिल हो गए. इश्तियाक अहमद कहते हैं कि इस चुनाव में भारत की वामपंथी पार्टी CPI ने अपने मु्स्लिम कैडरों को मुस्लिम लीग के पक्ष में प्रचार करने भेजा. इन्होंने वर्ग संघर्ष का नारा दिया और कहा कि सोशलिस्ट इस्लामिक पाकिस्तान में लोगों को हिन्दू और सिख साहूकारों से मुक्ति मिलेगी.
लाहौर के मुस्लिम चुनी हुई सरकार को मान ही नहीं रहे थे
सरकार तो बन गई लेकिन लाहौर समेत पूरे पंजाब का माहौल चार्ज रहा. जिन्ना के भड़काऊ भाषण, अंग्रेजों की साजिशें, मुसलमानों का इस्लामिक पाकिस्तान के सपने देखना. पंजाब की स्थिति सुलग रही थी. मुस्लिम लीग की लफ्फाजियों में बहे पंजाब के मुसलमान इस सरकार को मानने के लिए तैयार ही नहीं थे
1947 में खींची गई रेडक्लिफ रेखा.
एक-डेढ़ साल गुजरते गुजरते सन 47 आ गया. भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्तकबिल का फैसला होने वाला था. इससे पहले अगस्त 1946 में जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन का नारा दे दिया था. नतीजतन कलकत्ता, बिहार, पूर्वी बंगाल के नोआखली और बंबई में खुरेंजी दंगे हुए. 24 जनवरी 1947 को मुस्लिम लीग ने पंजाब में कहने के लिए तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन का नारा दिया. मुस्लिम लीग ने कहा कि वे पंजाब की सर खिजर टिवाना सरकार को मानने से इनकार कर दें.
मुस्लिम लीग की इस कॉल का व्यापक असर हुआ. मुस्लिम सड़क पर आ गए. जमकर हंगामा हुआ. कई गिरफ्तारियां हुई. लाहौर सुलगना शुरू हो चुका था. प्रोफेसर अहमद ने बड़ी साफगोई से कहा है कि धीरे धीरे लाहौर के मुसलमानों ने सिखों और हिन्दुओं को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. हिन्दुओं और सिखों के मन में अजीब उलझन और अनजाना खौफ बैठता जा रहा था.
20 फरवरी 1947 को एटली की सरकार ने घोषणा की कि वे जून 1948 को भारतीयों को सत्ता ट्रांसफर कर देंगे. इसके साथ ही दिल्ली, लखनऊ, बंबई, कलकत्ता, लाहौर जैसे शहरों में उत्तेजना और बढ़ गई.
प्रोफेसर अहमद कहते हैं कि 24 फरवरी 1947 मुस्लिम लीग के एक जुलूस ने एक सिख कॉस्टेबल को घेरकर मार दिया. पंजाब में मॉब एक्शन शुरू हो गया. मुस्लिम लीग का आंदोलन अब राजनीतिक न होकर खालिस मजहबी बन गया. 2 मार्च 1947 को सर खिजर टिवाना ने इस्तीफा दे दिया. लाहौर पंजाब की राजधानी होने की वजह से इन सारी गतिविधियों का केंद्र था.
इश्तियाक अहमद बताते हैं, “3 मार्च को पंजाब विधानसभा से सिख नेता मास्टर तारा सिंह बाहर निकले. उन्होंने पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा दिया और कहा कि हम कभी पाकिस्तान नहीं बनने देंगे. उन्होंने कृपाण निकाल ली. उसी शाम को लाहौर के पुरानी अनारकली के कुड़ी बाजार में सिख और हिन्दू नेताओं की मीटिंग हुई, उन्होंने कहा कि पंजाब में मुस्लिम लीग की सरकार नहीं बनने देंगे.’ बता दें कि खिजर टिवाना के इस्तीफे के बाद गवर्नर ने मुस्लिम लीग को एक बार फिर से सरकार बनाने का न्यौता दिया था.
4 मार्च 1947 से जल उठा लाहौर
4 मार्च 1947 को लाहौर में एक कॉलेज के पास सिख और हिन्दू छात्र जमा हो गए. गवर्नमेंट कॉलेज के प्रिंसिपल ने पुलिस बुला ली. पुलिस की फायरिंग में कई हिन्दु-सिख छात्र मारे गए. 4 मार्च की शाम होते होते लाहौर में कानून का इकबाल खत्म हो गया. दंगाई मनमर्जी पर उतारू थे. मुस्लिम लीग आग में घी डाल रहा था. कई ठिकाने जहां मुस्लिम अल्पसंख्यक थे वहां उन पर भी हमले हुए. लाहौर में तब 60 फीसदी आबादी मुस्लिमों की थी. सिख और हिन्दू 40 प्रतिशत थे. लेकिन माल-असबाब के मामले में सिख-हिन्दू धनी थे. मॉर्डन लाहौर हिन्दू बिजनेसमैन की सफलता की कहानियां कहता था. दंगों के दौरान ऐसा भी नहीं था कि सभी मुस्लिम हिन्दुओं पर हमला कर रहे थे या फिर हर जगह हिन्दुओं पर हमले हो रहे थे. कहीं कहीं से ऐसी भी कहानियां आती जिससे इंसानी भाईचारे पर भरोसा बढ़ता. कुछ हफ्ते लाहौर में चुप्पी रही.
अप्रैल में अमृतसर में दंगे हुए और मई आते आते लाहौर एक बार फिर जल उठा. इश्तियाक अहमद कहते हैं कि अमृतसर के मुस्लिम गुंडों ने लाहौर के मुस्लिम बदमाशों को चूड़ियां और मेहंदी ये कहते हुए भेजी कि हम यहां पर हिन्दुओं और सिखों को भगा रहे हैं और वहां तुम आराम कर रहे हो.
लाहौर में फिर से हिंसा शुरू हो गई. इस बार दंगाइयों ने नामी-गिरामी हिंदुओं और सिखों पर हमला किया. इनमें शामिल था सर गंगाराम का परिवार. सर गंगाराम की अहमितयत इसी बात से समझी जा सकती है कि उन्हें फादर ऑफ मॉर्डन लाहौर कहा जाता है. बावजूद उनके परिवार पर हमला हुआ. दयाल सिंह कॉलेज बनाने वाले दयाल सिंह मजीठिया के वंशजों पर हमला किया गया. यहां से इनका परिवार भागा. मई तक लाहौर के प्रभावशाली हिन्दू शहर छोड़ चुके थे. मई में ही ये तय हो गया कि मुस्लिम लीग लाहौर की लड़ाई जीत रही है. हिन्दू और सिख अब अपना इंतजाम करने लगे थे.
3 जून 1947 को पार्टिशन प्लान की घोषणा
वो मनहूस तारीख 3 जून 1947 थी. कांग्रेस अविभाजित भारत के लिए अड़ी थी लेकिन मुस्लिम लीग खुलकर हिंसा का खेल खेल रही थी. इसी बीच 3 जून 1947 को भारत के आखिरी वायसरॉय लॉर्ड लुई माउंटबेटन ने भारत को बांटने का प्लान सार्वजनिक कर दिया. इसे माउंटबेटन प्लान के नाम से जाना जाता है. इस प्लान में अंग्रेजों की ओर से कहा गया था कि अविभाजित भारत का हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दो भागों में बंटवारा होगा.
हिंदू बहुल इलाके भारत को और मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान को दे दिए जाएगे. इसी के तहत पूरब में बंगाल और उत्तर पश्चिम में पंजाब को दो टुकड़ों में बांटा गया. तब पंजाब में 29 जिले थे. जिनमें 12 हिन्दू सिख बहुल थे जबकि 17 मुस्लिम बहुल .
इधर लाहौर में मुस्लिम लीग की हिंसा वहशी रूप ले चुकी थी. शहर साम्प्रदायिक आग में दहक रहा था. 20-21 जून की रात को शाह आलमी में आग लगा दी गई. ये हिन्दुओं की बस्ती थी. कहते हैं कि यहां के मजिस्ट्रेट ने स्थानीय गुंडे बिल्ला जट्ट को बुलाया और शाह आलमी में आग लगा दी. 100 से ज्यादा लोग मारे गए. अगली सुबह इस शहर से हजारों हिन्दुओं-सिखों का पलायन शुरू हो गया. लाहौर से अमृतसर की ओर आने वाली ट्रेनें लाशों से भरती जा रही थी. वे समझ चुके थे कि लाहौर हाथ से निकल चुका है.
जून की तपती गर्मी में पहुंचे रेडक्लिफ
इधर जब पंजाब को तक्सीम करने के लिए लाइन खींचने की बारी आई तो अंग्रेजों ने इसकी जिम्मेदारी अपने एक ऐसे ऑफिसर को दी जो पंजाब तो छोड़िए इससे पहले कभी हिन्दुस्तान ही नहीं आया था. इनका नाम था सर सिरिल रेडक्लिफ. दरअसल अंग्रेज हमेशा से ही भारतीय संवेदनाओं को उपेक्षा, लापरवाही और गैर जम्मेदारी से देखते थे. इसलिए लंदन में वकालत करने वाले गोरे बाबू को वो काम दिया गया जिसके लिए न तो वे उपयुक्त थे और न ही इसकी समझ उन्हें थी.
8 जून 1947 को तपती गर्मी में भारत पहुंचे सर सिरिल रेडक्लिफ के पास अपना काम करने के लिए कुछ हफ्तों का समय था. न सिर्फ सियासी तापमान बल्कि जबर्दस्त लू से पंजाब की जमीन भी तप रही थी. लंदन की सर्दियों के आदी गोरे साहब रेडक्लिफ को भला लाहौर की तपती जमीन पर जाने की फुरसत कहां थी.
रेडक्लिफ ने खुद कहा है कि जून में फील्ड सर्वे करना लगभग नामुमकिन था
रेडक्लिफ ने दो भारतीयों मेहर चंद महाजन और तेजा सिंह और दो पाकिस्तानियों दीन मोहम्मद और मोहम्मद मुनीर की मदद से जैसे तैसे अपना काम पूरा किया. उन्होंने 12 अगस्त को ही एक सील बंद लिफाफे में भारत-पाकिस्तान का नया नक्शा माउंटबेटन को दे दिया. लेकिन माउंटबेटन नहीं चाहते थे कि 14 और 15 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस मना रहे भारत पाकिस्तान के लोग इस नए नक्शे से निकलने वाले सदमे से गुजरें. इसलिए ये नक्शा 17 अगस्त 1947 को सार्वजनिक किया गया.
एक अंग्रेज के पेंसिल की लकीरों ने लाहौर को पंजाब से सदा सदा के लिए जुदा कर दिया. इसके साथ फिर से शुरू हुआ हिंसा-खुरेंजी और इंसान के जानवर बन जाने का दौर और मानव सभ्यता का सबसे बड़ा ज्ञात पलायन.
लाहौर का पाकिस्तान को देने का सबब क्या है?
सियालकोट (अब पाकिस्तान में) में जन्मे प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर ने लंदन में सन 1971 में रेडक्लिफ के घर का दरवाजा खटखटाया था और बंटवारे की अतार्किक लकीरों के बारे में पूछा था? उन्होंने लाहौर को पाकिस्तान को देने का सबब भी पूछा था.
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब Scoop! Inside Stories From The Partition To The Present में रेडक्लिफ से इस बातचीत का जिक्र किया है.
नैयर से बातचीत के दौरान रेडक्लिफ़ ने बताया था कि वे लाहौर को लगभग भारत को दे ही चुके थे तभी उन्हें ख्याल आया कि अब तो पाकिस्तान के पास कोई बड़ा शहर नहीं बचेगा. कलकत्ता को वे पहले ही हिन्दुस्तान के नाम कर चुका था.
तथ्यों को नजरअंदाज कर लाहौर पाकिस्तान को दिया
बातचीत के दौरान कुलदीप नैयर ने रेडक्लिफ से पूछा कि पाकिस्तान के लोग उनसे नाराज हैं क्योंकि उनका आरोप है कि उन्होंने भारत का पक्ष लिया है. इसके जवाब में रेडक्लिफ ने कहा, “उन्हें मेरा आभारी होना चाहिए क्योंकि मैंने तथ्यों से परे जाकर लाहौर उन्हें दिया जो भारत के हिस्से में जाने के योग्य था. वैसे भी, मैंने हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों का पक्ष लिया.”
दरअसल लाहौर में हिन्दुओं की संपत्ति ज्यादा थी. वे सरकार को टैक्स ज्यादा देते थे, बैंक-बिजनेस-शिक्षा-कृषि का सारा कंट्रोल सिखों और हिन्दुओं के हाथों में था. प्राकृतिक न्याय तो यही कहता था कि लाहौर भारत के हिस्से में आए. लेकिन कूटनीति में न्याय संगत कहां रहा जाता है.
कुलदीप नैयर से बातचीत में रेडक्लिफ आगे जो कहते हैं उससे पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाती है, “मुझे 10-11 दिन मिले थे सीमा रेखा खींचने के लिए. उस वक़्त मैंने बस एक बार हवाई जहाज से दौरा किया. मेरे पास क्षेत्र के नक्शे भी नहीं थे. मैंने देखा लाहौर में हिंदुओं की संपत्ति अधिक है. लेकिन मैंने ये भी पाया कि इस समय तक पाकिस्तान के हिस्से में कोई बड़ा शहर नहीं था. मैंने लाहौर को भारत से निकालकर पाकिस्तान को दे दिया. लोग इसे सही या गलत कह सकते हैं. लेकिन ये मेरी मजबूरी थी.”
लाहौर का फैसला रेडक्लिफ की मजबूरी कहें या उनकी गलती या उनकी बेईमानी. इतिहास इन निर्णयों को ठीक करने के मौके कहां देता है.