छठ पूजा के मौके पर संपत्ति विवाद… नितिन और नीतू चंद्रा की इस फिल्म की कहानी में कितना सच!

छठ पूजा के मौके पर संपत्ति विवाद... नितिन और नीतू चंद्रा की इस फिल्म की कहानी में कितना सच!

‘छठ’ फिल्म के सीन

नितिन नीरा चंद्रा के निर्देशन में आई फिल्म ‘छठ’ देखने के बाद कुछ बड़ी सच्चाइयों का सामना होता है. चार दिनों तक बड़े ही भक्ति भाव से मनाए जाने वाले लोक आस्था के पर्व छठ में शरीक होने के लिए परदेस में रहने वाले लोग बड़ी शिद्दत से अपने-अपने घर-गांव जाते हैं. लेकिन इस दौरान घर-परिवार के अंदर क्या-क्या घमासान हो जाते हैं- इसे इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है. वस्तुत: छठ त्योहार मनाना तो बहाना होता है लेकिन इसके बाद होती है असली कहानी, जब संपत्ति विवाद का सामना होता है.

इसीलिए कहना लाजिमी हो जाता है कि यह फिल्म भले ही छठ के मौके पर आई है लेकिन इसमें दिखाया गया मु्द्दा छठ के आर-पार है. यह कहानी घर-घर की है, और किसी भी समय की है. लिहाजा दर्शक इसे कभी भी देख सकते हैं. केवल बिहार नहीं बल्कि देश के किसी भी भाग में रहने वाले लोग इसमें अपना जुड़ाव पा सकते हैं. यहां तक कि जो देश के बाहर रहते हैं, उनके लिए भी इसमें संदेश है.

बिहार नहीं, देश भर का मुद्दा

‘छठ’ फिल्म को प्रसार भारती के वेव्स (Waves OTT) पर देखा जा सकता है. कहानी की पृष्ठभूमि बिहार की है. इसके केंद्र में गोविंद (शशि वर्मा) हैं. भाई दूज-चित्रगुप्त पूजा से कहानी शुरू होती है. घर में छठ पूजा की तैयारियां चल रही हैं. सालों बाद परिवार के सारे सदस्यों को एकजुट होने का मौका मिला है. गोविंद की तीन बहनें, उनके पति और बच्चे इस मौके पर आते हैं. घर में गोविंद की बीमार मां हैं. इसके साथ ही गोविंद के भाई के बेटे मोहित (दीपक सिंह) और बहू नीलांजना (मेघना पंचाल) अमेरिका से आते हैं. छठ के मौके पर घर भर जाता है.

एक दिन मोहित अपने गांव घूमने निकलता है तो उसे जानकारी मिलती है कि उसके दिवंगत पिता के नाम की ज़मीन पर उसके चाचा यानी गोविंद ने उसे बिना सूचना दिए क्लिनिक बनवा दिया. इसके बाद मोहित नाराज हो जाता है. मोहित को यह भी पता चलता है कि क्लिनिक का भाड़ा भी चाचा ही उठाते हैं. इस सूचना के बाद ऐन छठ पर्व के बीच परिवार में संपत्ति विवाद गहरा जाता है. मोहित इस बात पर अड़ जाता है कि या तो क्लिनिक तुड़वाया जाए या फिर किराये का आधा हिस्सा उसे दिया जाए. इसके बाद में क्या-क्या होता है. यह संपत्ति विवाद फिर कैसे सुलझता है, इसे जानने के लिए फिल्म देखें. लेकिन इतना जरूर बता दें कि अंत में बीमार दादी (रेनू सिंह) ने कमाल कर दिया.

ये है हर-घर का फैमिली ड्रामा

यकीन मानिए इस फिल्म का फैमिली ड्रामा घर-घर का है. छठ एक प्रतीक पर्व है. इस तरह के अनेक मौके आते हैं जब संयुक्त परिवार के सदस्य इकट्ठा होते हैं लेकिन असली मौका गौण हो जाता है उसकी जगह संपत्ति विवाद शुरू हो जाता है. फिल्म में इस सामाजिक और पारिवारिक सच्चाई को विस्तार से पूरी संवेदनशीलता के साथ दिखाया गया है. फिल्म के कई प्रसंग सीधे-सीधे अपने-से लगते हैं. हरेक के दिल के करीब है. घर पर रहने वाले का तर्क अलग होता है, बाहर रहने वाले का तर्क कुछ और होता है. दोनों अपनी-अपनी जगह सही होते हैं लेकिन पैतृक संपत्ति चीज़ ही है, जिसका रिश्ता भावुकता से जुड़ा होता है-लिहाजा कोई कदम पीछे नहीं करना चाहता. कई बार मामले कोर्ट कचहरी चले जाते हैं.

नितिन और नीतू चंद्रा की सार्थक पहल

हालांकि फिल्म की कहानी का ताना-बाना थोड़ा पुरानापन लिये हुए है, ग्रामीण परिवेश होने से बैकड्रॉप भी कहीं-कहीं कच्चा दिखता है लेकिन फिल्म के संवाद और पटकथा बेहरीन है. संवाद में पात्रों की जरूरत के हिसाब से भोजपुरी, मैथिली, हिंदी यहां तक कि अंग्रेजी का भी इस्तेमाल किया गया है, जो बहुत ही सहज है. कहीं-कहीं भावुकता और हास्य के प्रसंग भी दिल को छूने वाले हैं. सभी कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है. खासतौर पर गोविंद के किरदार में शशि वर्मा ने हर पल के अलग-अलग इमोशन को बखूबी जीकर दिखाया है. अन्य कलाकारों में सुषमा सिन्हा, निभा श्रीवास्तव, स्नेहा पल्लवी आदि ने भी बेहतरीन अभिनय किया है.

गौरतलब है कि भोजपुरी फिल्मों ने अपनी कहानी, संवाद और गीत-संगीत के चलते जितने हमले सहे हैं, उसके कोई भी लक्षण यहां नजर नहीं आते. इस तरह की साफ-सुथरी भोजपुरी फिल्म का आना सराहनीय पहल है. पिछले कुछ सालों से नितिन नीरा चंद्रा और नीतू चंद्रा इस दिशा में गंभीर काम कर रहे हैं. बहुत कम लोगों को मालूम हो कि दोनों भाई-बहन हैं. देसवा, मिथिला मखान और करियट्ठी के माध्यम से गंभीर पहल देखी गई है. इन सभी फिल्मों में कोई ना कोई सामाजिक संदेश दिया गया है. दोनों भाई-बहन ने इस बार छठ पर संयुक्त परिवार के संपत्ति विवाद का मुद्दा सामने रखा है.

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