पैसे के लिए ताक पर रख दी देश की सुरक्षा, खुद अमेरिका चीन को ऐसे बना रहा ‘सुपरपावर’!

पैसे के लिए ताक पर रख दी देश की सुरक्षा, खुद अमेरिका चीन को ऐसे बना रहा 'सुपरपावर'!

चीन की ताकत के पीछे अमेरिका!

एक हैरान करने वाला खुलासा सामने आया है, जो अमेरिका की कथनी और करनी के बीच एक गहरे अंतर को उजागर करता है. एसोसिएटेड प्रेस (AP) की रिपोर्ट के मुताबिक, एक तरफ अमेरिकी सरकार चीन को राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवाधिकारों के हनन पर सख्त चेतावनियां देती है, वहीं दूसरी तरफ पिछले कई दशकों से, पांच रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक प्रशासनों के तहत, अमेरिकी सरकार ने अपनी ही टेक कंपनियों को चीनी पुलिस, सरकारी एजेंसियों और जासूसी कंपनियों को तकनीक बेचने की न केवल अनुमति दी, बल्कि कई मामलों में सक्रिय रूप से मदद भी की है.

यह सब उस वक्त हो रहा है जब दोनों देशों के बीच तकनीकी वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई है. अमेरिका को अच्छे से पता है कि चीन उसकी हाईटेक तकनीक का इस्तेमाल अपनी सेना और जासूसी तंत्र को मजबूत करने में कर रहा है. इसके बावजूद, एक ऐसा “चोर दरवाजा” (loophole) खुला छोड़ दिया गया है, जिसका फायदा चीन जमकर उठा रहा है.

चीन के पास हर ताले की चाभी

अमेरिकी सांसदों ने पिछले साल सितंबर से अब तक चार बार इस चोर दरवाजे को बंद करने की कोशिश की है. यह सबसे बड़ा लूपहोल है ‘क्लाउड सर्विसेज़’. दरअसल, अमेरिका ने चीन को शक्तिशाली AI चिप्स की सीधी बिक्री पर प्रतिबंध लगा रखा है. लेकिन चीन की कंपनियां इन चिप्स को खरीदने के बजाय अमेरिकी कंपनियों (जैसे माइक्रोसॉफ्ट एज़्योर या अमेज़न वेब सर्विसेज़) से किराए पर ले रही हैं और अपने AI मॉडल को प्रशिक्षित कर रही हैं.

जब भी इस लूपहोल को बंद करने का प्रस्ताव आया, टेक कंपनियों और उनके संगठनों के 100 से अधिक लॉबिस्टों की फ़ौज सक्रिय हो गई. नतीजा, चारों बार यह प्रस्ताव विफल हो गया.

AP की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दो दशकों में अमेरिकी टेक और टेलीकॉम कंपनियों ने उन लॉबिस्टों पर करोड़ों डॉलर खर्च किए हैं, जो चीन-संबंधित व्यापार को प्रभावित करने वाले बिलों पर काम कर रहे थे.

टेक कंपनियां तर्क देती हैं कि यदि उन पर प्रतिबंध लगाए गए, तो चीन अपनी घरेलू तकनीक विकसित कर लेगा, जो अमेरिका के लिए ज़्यादा ख़तरनाक होगा. उनका यह भी कहना है कि इससे अमेरिकी नौकरियां खतरे में पड़ जाएंगी.

अमेरिकी सरकार खुद बनी ‘मुनाफे में हिस्सेदार’

मामला सिर्फ़ लॉबिंग तक सीमित नहीं है. हाल के महीनों में, राष्ट्रपति ट्रम्प ने खुद सिलिकॉन वैली की कंपनियों के साथ ऐसी बड़ी डील की हैं, जिन्होंने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को चीन को होने वाले तकनीकी निर्यात से और भी मज़बूती से जोड़ दिया है.

अगस्त में, ट्रम्प ने राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञों की चिंताओं को दरकिनार करते हुए चिपमेकर एनवीडिया (Nvidia) और AMD के साथ एक समझौते की घोषणा की. इस डील के तहत, चीन को उन्नत चिप्स की बिक्री पर लगे निर्यात नियंत्रणों को हटा दिया गया, जिसके बदले में अमेरिकी सरकार को राजस्व में 15% की कटौती मिलेगी.

इसी महीने, ट्रम्प ने घोषणा की कि अमेरिकी सरकार ने इंटेल (Intel) में लगभग 11 बिलियन डॉलर की 10 प्रतिशत हिस्सेदारी ली है. इसका सीधा मतलब है कि अब अमेरिकी करदाताओं का पैसा भी उस मुनाफे से जुड़ा है, जो ये कंपनियां चीन को तकनीक बेचकर कमा रही हैं. हालांकि इंटेल का कहना है कि सरकार की यह हिस्सेदारी “निष्क्रिय” है और उनका शासन में कोई दखल नहीं है.

अत्याचार करने के लिए भी अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल

यह ‘क्लाउड’ लूपहोल अकेला नहीं है. 1989 के तियानमेन चौक नरसंहार के बाद भी अमेरिका ने चीन पर प्रतिबंध लगाए थे, लेकिन वे प्रतिबंध सिर्फ़ कम-तकनीक वाले पुलिस उपकरणों (जैसे हथकड़ी, हेलमेट और डंडे) तक सीमित थे. सिक्योरिटी कैमरे, सर्विलांस ड्राइव या फेशियल रिकग्निशन जैसी नई तकनीकें कभी इसके दायरे में आईं ही नहीं. 2006 से 2013 के बीच इन कमियों को दूर करने के कई प्रयास हुए, लेकिन सभी विफल रहे.

जांच में यह भी पाया गया कि अमेरिकी वाणिज्य विभाग (Commerce Department) की एक्सपोर्ट-प्रमोशन शाखा, ‘यूएस कमर्शियल सर्विस’, एक दशक से भी अधिक समय तक अमेरिकी विक्रेताओं को चीनी सुरक्षा एजेंसियों से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही. 2007 में, विभाग ने महज़ 35 डॉलर में एक वेबिनार की पेशकश की, जिसमें बताया गया कि चीनी सुरक्षा बाज़ार में कैसे प्रवेश किया जाए.

इसका सबसे दुखद पहलू मानवाधिकारों का हनन है. चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों में अमेरिकी तकनीक के इस्तेमाल के पुख्ता सबूत मिले हैं.

गुलबहार हैतिवाजी, एक उइगर महिला, जिन्हें शिनजियांग के डिटेंशन कैंपों में दो साल से अधिक समय तक रखा गया था, बताती हैं कि उन पर अमेरिकी तकनीक पर आधारित सिस्टम से लगातार निगरानी रखी जाती थी, यहाँ तक कि टॉयलेट में भी कैमरे लगे थे.

एक अन्य चीनी कार्यकर्ता झोउ फेंगसुओ, जो 1989 के तियानमेन छात्र नेता थे, कहते हैं, “यह सब मुनाफे से प्रेरित है… मैं बेहद निराश हूं… यह संयुक्त राज्य अमेरिका की एक रणनीतिक विफलता है.”

वहीं डेमोक्रेटिक सीनेटर रॉन विडेन ने इस विफलता का कारण बताते हुए कहा, “इन सभी कंपनियों में क्या समानता है? एक बड़ा बटुआ. यही कारण है कि हमने इस मुद्दे पर कोई प्रगति नहीं की है.”

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