
“तेन त्यक्तेन भुज्जीथा” अर्थात त्याग करके भोग करो। “राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” पूज्य श्री गुरूजी का राष्ट्र को समर्पित यह मंत्र आज भी संघ के रोम रोम में व्याप्त है। ‘इदं न मम’ अर्थात यह मेरा नही है, कुछ भी मेरा नहीं है यही भारतीय दर्शन है। वही दर्शन शाश्वत होता है जो प्राकृतिक होता है और इदं न मम ही प्राकृतिक है। आपने कभी पशुओं को देखा है, वे पूर्ण आस्था और ममत्व से अपने बच्चों का पालन करते हैं, उन्हें देख कर ऐसा भ्रम होता है कि इन्हे अपने बच्चों में पूर्ण आसक्ति है, परन्तु जैसे ही बच्चा अपनी उदर पूर्ति में सछम हो जाता है, माता और संतति का वह सम्बन्ध स्वतः समाप्त हो जाता है। आपने कभी पक्षियों को देखा है, कैसे एक एक दाना चुन कर माता शिशु के मुख में रखती है, परन्तु जैसे ही वह शिशु उड़ने में सछम हो जाता है माता चिंता मुक्त हो जाती है। आप वृक्षों को देखें, उनमें फल लगते हैं और जब फल पकने लगते है तो वृक्ष स्वयं उन्हें अपने से दूर कर देते हैं। कभी आम के वृक्ष को देखें, पपीते के वृक्ष को देखें, उसका कच्चा फल तोडें तो वृक्ष से एक द्रव स्त्रावित होता है, यह उस वृक्ष की पीड़ा है, क्यों कि उस फल को पोषण के लिए अभी वृक्ष की आवश्यकता थी; परन्तु फल पक जाने पर फल को तोड़ने से कोई द्रव स्त्रावित नही होता है। यह प्राक्रतिक दर्शन है कि इस जगत में जो कुछ भी है उसमें हमारा कुछ भी नहीं है।
भारतीय दर्शन प्राकृतिक दर्शन है, इसीलिये शाश्वत है, यह यहाँ के जीवन में रचा बसा है, इसी लिए ‘सबै भूमि गोपाल की’ और ‘तेरा तुझको अर्पण’ जैसे वाक्य जन जन के मुख पर रहते हैं; परन्तु मुख से कहना अलग बात है और उसे ह्रदयंगम करना अलग बात है। हम कहते तो बहुत कुछ हैं परन्तु आचरण सर्वथा विपरीत करते हैं, सामान्य रूप से देखने को मिलता है कि व्यक्ति अपने तक अथवा अपने पुत्रों तक का ही प्रबंध नहीं करता है अपितु आगे की कई पीढियों की चिंता करता है। जिस देह को हम अपनी समझते हैं, वह भी अपनी रहने वाली नही है। इसी बात को धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत ही सुंदर शब्दों में व्यक्त किया था कि ‘ हर व्यक्ति जानता है कि एक दिन उसका अंत होगा परन्तु आचरण ऐसा करता है जैसे वही अमर रहेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वह संगठन है जहाँ कार्यकर्ता या स्वयंसेवक बना नहीं जाता अपितु गढ़ा जाता है और उस साँचे या कसौटी में जो शत प्रतिशत खरा बना कर निकलता है। जिस संगठन का धेय्य ही “हम करें राष्ट्र आराधन” के सूत्र व्याक्य पर हो उस संगठन में पद का कोई महत्व ही नहीं है अपितु समय समय पर अपने कार्यकर्ताओं को संघ राष्ट्र होम में स्वाहा करने के लिए तत्पर करता रहता है। दायित्व पर चेहरे समय समय पर बदल जाते हैं शायद यही कारण है कि संघ आज युवा और तरुणाई से भरा नज़र आता है जो बना तो बहुत पहले पर आज भी बूढ़ा नहीं हुआ। संगठन की जो रीति नीति है उसमे आप आज सब कुछ हैं पर कल ऐसा भी हो सकता है कि आप कुछ न हों यही तो राष्ट्र होम है।
पूज्य हेडगेवार जी ने जिस संघ की स्थापना की थी। अपनी यात्रा में आज वह 100 साल की हो गई।
तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूँ ये देश की मिटटी तु