दिल्ली हाई कोर्ट के एक फैसले से कई किसानों को बड़ी राहत मिली है. हाई कोर्ट ने अपने एक बेहद अहम फैसले के जरिए दिल्ली के किलोकरी, खिजराबाद, नंगली राजापुर और गढ़ी मेंडू के उन सैकड़ों ग्रामीणों का मुआवजा राशि बढ़ा दी है, जिनकी जमीन आज से 3 दशक पहले यमुना तटीकरण परियोजना (Yamuna Channelisation Project) के लिए अधिग्रहित की गई थी.
हाई कोर्ट ने मुआवजा राशि बढ़ाते हुए मुआवज़े को 89,600 रुपये प्रति बीघा से बढ़ाकर 2 लाख रुपये प्रति बीघा कर दिया. साथ ही सरकार को शेष राशि ब्याज के साथ चुकाने का निर्देश भी दिया. जस्टिस तारा वितस्ता गंजू की बेंच की ओर से यह फैसला 26 सितंबर को दिया गया जिसे कल सोमवार को जारी किया गया.
HC में दाखिल की गईं 140 से अधिक अपील
यह आदेश साल 2006 में एक ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ ग्रामीण लोगों की ओर से दाखिल 140 से अधिक अपीलों पर फैसला सुनाते हुए आया, जिसमें मुआवजा 27,344 रुपये से बढ़ाकर 89,600 रुपये प्रति बीघा कर दिया गया था.
यह अधिग्रहण साल 1989 में “दिल्ली के नियोजित विकास” (Planned Development of Delhi) और यमुना के तटीकरण (channelisation of the Yamuna) के लिए जारी अधिसूचना के तहत किया गया था- यह दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का एक प्रोजेक्ट था जिसका मकसद नदी को नियंत्रित करना और बाढ़ को रोकना था. इस योजना के तहत, यमुना नदी किनारे बसे 15 गांवों की करीब 3,500 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित की गई.
LAC ने 1992 में कम किया भुगतान
हालांकि ग्रामीणों इस अधिग्रहण को लेकर ज्यादा खुश नहीं थे. उनका कहना था कि भूमि अधिग्रहण कलेक्टर (Land Acquisition Collector, LAC) ने उनकी जमीन का बहुत ही कम मूल्यांकन किया है. उन्होंने पहले 1959 में इसकी कीमत 26,000 रुपये प्रति बीघा आंकी थी और बाद में 1992 में 27,344 रुपये प्रति बीघा तय की.
उन्होंने तर्क दिया कि यह रेट 1989 में अधिग्रहण के समय के उचित बाजार मूल्य को नहीं दर्शाती. उन्होंने आरोप लगाया कि जबकि पास के बहलोलपुर खादर और जसोला गांवों के जमीन मालिकों को तुलनात्मक स्थिति और शहरी विकास की संभावना के बावजूद, क्रमशः 2.5 लाख रुपये प्रति बीघा और 4,948 रुपये प्रति वर्ग गज मुआवजा बहुत ज्यादा मिला था.
सरकार-DDA का क्या रहा पक्ष
खासतौर से, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि किलोकरी की जमीनों का मूल्यांकन महारानी बाग, कालिंदी कॉलोनी और जंगपुरा जैसे आस-पास के उच्च-वर्गीय इलाकों से अलग नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि वे निकटवर्ती हैं और उनमें शहरी क्षमता भी समान हैय
जबकि , डीडीए और केंद्र ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि अधिग्रहित जमीन “सैलाबी” है- यानी निचली और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र- और इसलिए इसका इस्तेमाल न तो खेती के लिए किया जा सकता है और न ही निर्माण के लिए. उन्होंने कहा कि जमीनों की तुलना आस-पास के गांवों के विकसित या विकास योग्य इलाकों से नहीं की जा सकती.