
विनोद खन्ना Vs अमिताभ बच्चन
अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन जब एंग्री यंग मैन कहे जाते थे, तब विनोद खन्ना को हैंडसम हंक कहा जाता था. दोनों की उम्र में तकरीबन चार साल का फर्क है. अमिताभ बड़े हैं, जबकि फिल्म उद्योग में विनोद खन्ना भी शत्रुघ्न सिन्हा की तरह ही अमिताभ बच्चन से करीब डेढ़-दो साल पहले आए थे. बिहारी बाबू अक्सर इसका उल्लेख करते हैं. अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म 1969 में सात हिंदुस्तानी आई जबकि विनोद खन्ना की पहली फिल्म 1968 में मन का मीत आई. दोनों महान कलाकारों में कुछ बातें बड़ी समान सी हैं. शुरुआती दिनों में विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन दोनों को सुनील दत्त और मनोज कुमार से मदद मिली. आगे चलकर जब भी दोनों किसी फिल्म में एक साथ आए, उस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त सफलता हासिल की और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया. खून पसीना, हेरा फेरी, मुकद्दर का सिकंदर या अमर अकबर एन्थॉनी में दोनों जब-जब साथ-साथ दिखे, स्क्रीन पर बहुत ही प्रभाव पैदा करते हैं.
दोनों की पर्सनाल्टी का यह अनोखा असर था. एक एंग्री यंग मैन तो दूसरा हैंडसम हंक. दोनों को एक साथ देखने पर दर्शकों को दोगुना आनंद तो आना ही था. और यही वजह है कि उनके फैन्स और समीक्षक अक्सर दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा की एक रेखा खींच देते थे. दोनों के अभिनय और उपलब्धियों की तुलना करने लगते थे. दोनों सुपरस्टार्स की अपनी-अपनी फैन फोलोइंग रही है. थोड़े अप-डाउन को छोड़ दें तो पर्दे पर दोनों एक-दूसरे को कड़ी टक्कर देते दिखे. कोई किसी से उन्नीस प्रतीत नहीं होते. दोनों कद्दावर, दमदार आवाज और आंखों से हर भाव प्रकट करने वाले अभिनेता. स्क्रीन पर दोनों की पर्सनाल्टी में चमक और चमत्कार का आकर्षण था. इसी बीच जब सन् 1982 में विनोद खन्ना आचार्य रजनीश के शिष्य बनकर अमेरिका चले गए तब एक बड़े सवाल ने जन्म लिया. सवाल था- विनोद खन्ना अगर ओशो की शरण में अमेरिका नहीं जाते तो अमिताभ बच्चन को पीछे छोड़ देते.
मरणोपरांत दिया गया दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड
यह सवाल पिछले चार दशक से गाहे-बगाहे अब भी जारी है. हर साल विनोद खन्ना की जन्मतिथि 6 अक्टूबर और उनकी पुण्यतिथि 27 अप्रैल पर श्रद्धांजलि स्वरूप उन पर लिखे जाने वाले तमाम लेखों और संस्मरणों में यह सवाल किसी ना किसी रूप में उठाए जाते रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि विनोद खन्ना एक बेहतरीन कलाकार थे. जमीन से जुड़ कर उन्होंने भी बड़ा संघर्ष किया और अपनी प्रतिभा की बदौलत फिल्म उद्योग में योग्य स्थान बनाया. कैंसर ने उन्हें वक्त से पहले ही अपने प्रशंसकों से जुदा कर दिया.
हिंदी सिनेमा में उनके अहम योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उनको 2017 में दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित करने का ऐलान किया था. धर्मेंद्र सरीखे दिग्गज अभिनेता के बरअक्स उन्हें सिनेमा जगत का सबसे बड़ा सम्मान अमिताभ बच्चन से भी पहले मिला. धर्मेंद्र इस सर्वोच्च सम्मान से अब भी वंचित हैं. मरणोपरांत दादासाहेब फाल्के पुरस्कार देने की परंपरा विनोद खन्ना से ही प्रारंभ होती है. यह सबकुछ उनकी कलाकार शख्सियत को देखते हुए ही हुआ.
1971 में मेरे अपने से सुर्खियों में विनोद खन्ना
अब जरा इस सवाल की गहराई से पड़ताल करने की कोशिश करते हैं. अमिताभ बच्चन चर्चा में आए सन् 1973 की फिल्म ज़ंजीर से लेकिन उससे पहले विनोद खन्ना सन् 1971 में ही मेरे अपने से सुर्खियां बटोर चुके थे. गुलज़ार निर्देशित मेरे अपने में विनोद खन्ना के साथ शत्रुघ्न सिन्हा भी थे. गौर करने वाली बात ये है कि ज़ंजीर में जिस गुस्सैल नायक का अक्स दिखता है, उसका पूर्वाभास मेरे अपने में उपस्थित था. बेरोजगार युवकों के गुस्से के निशाने पर पूरा सिस्टम था. यानी अमिताभ से पहले विनोद खन्ना को गुस्सैल किरदार निभाने का पूरा अवसर मिला था. ये अलग बात है कि मेरे अपने फिल्म में विनोद खन्ना से ज्यादा यश छेनू के किरदार में शत्रुघ्न सिन्हा लूट ले गए. बाकी संवेदना बुजुर्ग महिला के रोल में मीना कुमारी ले गईं. विनोद खन्ना अंडरडॉग ही रह गए.
रेशमा और शेरा में विनोद विलेन, अमिताभ गूंगे बने
अमिताभ बच्चन के सामने विनोद खन्ना को दूसरा बड़ा मौका इसी समय आई सुनील दत्त की फिल्म रेशमा और शेरा में मिला. सुनील दत्त ने दोनों कलाकारों को मदद की भावना से इस फिल्म में रोल दिया था. फिल्म की कहानी में विनोद खन्ना का पलड़ा भारी था. विनोद बेशक विलेन बने थे लेकिन रोबीली आवाज और खतरनाक लुक वाले चेहरे के साथ उनका रोल सुनील दत्त के समानांतर था. वहीं इस फिल्म में अमिताभ बच्चन को एक गूंगा किरदार दिया गया था, वह बहुत छोटा भी था. वह रोल कोई भी कर सकता था लेकिन सुनील दत्त ने अमिताभ बच्चन को वह रोल संघर्ष में सहयोग स्वरूप ही दिया था. हालांकि थोड़ी देर के गूंगे के रोल में भी अमिताभ अपने अभिनय की छाप छोड़ देते हैं, जब राखी के पैरों तले गिरकर गिड़गिड़ाते और रोते हैं.
एंग्री यंग मैन के पीछे था सलीम-जावेद का दिमाग
लेकिन ये सारी बातें ज़ंजीर से पहले की हैं. जैसे ही ज़ंजीर और इसके बाद दीवार आती है सारा परिदृश्य बदल जाता है. जो शशि कपूर अमिताभ को कभी ढाढ़स बंधाते थे कि एक दिन तुम्हारा टाइम आएगा, वही शशि कपूर आगे चलकर अमिताभ बच्चन की फिल्मों मसलन सुहाग और त्रिशूल आदि में उनके को-स्टार बने. दीवार में भी शशि कपूर सहायक अभिनेता ही थे. कहानी के केंद्र में अमिताभ का रोल था. इसी तरह तब के सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ आनंद में बतौर सहायक अभिनेता बनकर आए अमिताभ बच्चन जब नमक हराम में दोबारा साथ आए तो इस बार उनका कद बढ़ा हुआ था.
अमिताभ बच्चन अब अंडरडॉग नहीं रह गए थे. अमिताभ के एंग्री यंग मैन की मार्केटिंग का जलवा रंग जमा चुका था. इसके पीछे सलीम-जावेद का दिमाग भी था. उनकी कहानी, पटकथा और संवाद में तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों की परछाइयां थीं, जिसे अमिताभ पूरे थ्रिल के साथ स्क्रीन पर डिलीवर कर रहे थे, जिसके चलते तत्कालीन चमकने वाले कई सितारों की चमक फीकी पड़ गई.
विनोद एक्टर तो अमिताभ परफॉर्मर और एंटरटेनर भी
विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन के मूल्यांकन में कुछ बुनियादी बातों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. हमें यह मानकर चलना चाहिए कि दोनों मुख्यधारा की कमर्शियल फिल्मों के नायक रहे हैं. कमर्शियल सिेनमा में लोकप्रियता का शिखर हासिल करने के लिए अभिनय जितना जरूरी है, उतना ही उसका परफॉर्मर और एंटरटेनर होना भी आवश्यक है. जब हम दो बड़े कलाकारों की तुलना करते हैं तो इन सभी श्रेणियों का ख्याल रखना जरूरी हो जाता है. साथ ही देखना यह भी जरूरी हो जाता है कि इनमें सबसे ज्यादा सोलो सुपरहिट किस अभिनेता ने दी है. विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन की तुलना में इन विंदुओं का जिक्र जरूरी है.
अमिताभ के पास विनोद से ज्यादा सोलो सुपरहिट
सोलो सुपरहिट फिल्मों की संख्या, वहीं एक्टिंग के साथ परफॉर्मर और एंटरटेनर वाली भूमिका को देखें तो अमिताभ बच्चन का पलड़ा भारी दिखता है. विनोद खन्ना की सोलो हिट की संख्या बहुत कम है. ओशो के शिष्य बनने से पहले विनोद खन्ना की जितनी भी सुपरहिट फिल्में हैं, उनमें ज्यादातर वे को-स्टार बनकर आते हैं या उससे भी पहले खलनायक बनकर आते हैं. मेरा गांव मेरे देश में भी वह विलेन डाकू बने थे.
हालांकि रजनीश की दुनिया से वापस आने के बाद विनोद खन्ना की बेशक कुछ फिल्में धमाके के साथ आईं मसलन सत्यमेव जयते और दयावान आदि लेकिन तब तक अमिताभ बच्चन काफी आगे बढ़ चुके थे. विनोद खन्ना के ओशो का शिष्य बनने से पहले ही अमिताभ की कई सोलो सुपरहिट आ चुकी थी, मसलन ज़ंजीर के बाद अभिमान, मिस्टर नटवरलाल, डॉन, लावारिस, याराना आदि. उस दौर में लोकप्रियता और स्टारडम को देखते हुए विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन जिस भी फिल्म में साथ आए, उनमें स्क्रीन पर सबसे पहले अमिताभ का नाम आता था. यह फैसला डायरेक्टर का होता था.
विनोद खन्ना की दूसरी पारी रही ज्यादा धमाकेदार
विनोद खन्ना एक प्रतिभाशाली अभिनेता थे, लेकिन अमिताभ लोकप्रियता के पैमाने पर इसलिए उनसे आगे निकलते दिखते हैं क्योंकि वे दमदार अभिनय करने के साथ-साथ एक उम्दा परफॉर्मर और एंटरटेनर भी साबित होते हैं. वह गंभीर अभिनय करने के साथ-साथ हंसाने और नाचने-गाने में उतने ही अव्वल साबित हुए. अमिताभ बच्चन की पर्सनाल्टी एक्टर और एंटरटेनर का कंप्लीट पैकेज था. जबकि विनोद खन्ना एक बेहतर एक्टर रह जाते हैं. सन् 1982 तक की उन दोनों की परफॉर्मेंस के अंतर को देखते हुए ऐसा कत्तई नहीं लगता कि विनोद खन्ना अगर अमेरिका नहीं जाते तो अमिताभ बच्चन को पीछे छोड़ देते.
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