
संघ के 100 साल पूरे
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) अकेला ऐसा संगठन है जिसे उसके जन्म के समय से ही आरोपों के दायरे में घेरा जाना शुरू हो गया था. हर दिन उस पर आरोप लगे किंतु आज तक कोई भी विरोधी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सका. जबकि ऐसा भी नहीं है कि सत्ता में बैठे उसके लोग उसे हरदम बचा लेते हैं. ऐसा इसलिए है कि देश की जनता के बीच उसकी पैठ बहुत गहरी है. यह संगठन कभी भी दबे-छिपे अपना एजेंडा नहीं रखता बल्कि खुलकर रखता है. उसने स्पष्ट कहा है कि देश को अखंड रखना और हिंदुओं को एक करना उसका लक्ष्य है. यह कोई गलत बात नहीं है. लेकिन यह कतई धार्मिक संगठन भी नहीं है. न ही कभी धार्मिक क्रिया कलापों से यह अपने को बांधता है. यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है और इसी वजह से चाहे-अनचाहे राजनीति उसमें घुस ही जाएगी.
आरोप लगाने वाले ही लड़खड़ा जाते रहे
कोई भी पार्टी सत्ता में हो RSS अपने एजेंडे पर दृढ़ रहता है, क्योंकि RSS सीधे-सीधे किसी भी ऐसे कार्यकलाप में नहीं रहता जो उसे गैर कानूनी साबित कर सके. यही कारण है कि पिछले 100 वर्षों से RSS की यात्रा यथावत जारी है. अंग्रेजों के राज के बाद इसने कांग्रेस का राज भी देखा और अटल व मोदी का भाजपा राज भी. कई सरकारों ने इसकी गतिविधियों पर रोक लगाने की कोशिश की परंतु आरएसएस पर रोक कभी भी स्थायी नहीं हो सकी. उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि देश या प्रदेश में उसके अनुकूल विचारों की सरकार है या प्रतिकूल विचारों की. इसीलिए RSS को लेकर जितने विवाद हुए उन विवादों को बुझाने वाले RSS के एक्टिविस्ट भी और हमलावर हुए. यही कारण है कि अंत में RSS के विरोधियों को मुंह की खानी पड़ी.
RSS के पास अपना मुस्लिम फ्रंट भी
RSS पर पहला आरोप तो यह लगा कि वह सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ाती है और दंगा करवाने में मास्टरमाइंड उसके ही लोग होते हैं पर स्वयं दंगा पीड़ित इसका खंडन करते हैं कि उन्होंने कभी भी RSS के किसी कार्यकर्त्ता को दंगा भड़काते हुए देखा. इसका नतीजा यह हुआ कि RSS पर हमला करने वाले उसके राजनीतिक विरोधी समझे जाने लगे. लेकिन चूंकि संघ स्वयं को राजनीतिक संगठन कहता ही नहीं है, इसलिए इस तरह का विवाद खड़े करने वालों को बार-बार शर्मिंदा होना पड़ता है. कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी खासकर शम्सुल इस्लाम जैसे लोग आरोप लगाते हैं कि RSS मूल रूप से इस्लाम और मुसलमानों का विरोधी है. परंतु आरएसएस के मूल सिद्धांतों में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है. उलटे RSS के मुस्लिम फ़्रंट में मुसलमानों की संख्या भी खासी है.
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ब्राह्मणवादी संगठन नहीं है RSS
कुछ लोग RSS को ब्राह्मणवादी संगठन बताते हैं. पर यह विवाद भी तब धराशायी हो जाता है जब RSS के प्रचारकों में बड़ी संख्या गैर ब्राह्मणों की देखी जाती है. यहां तक कि 1994 में एक गैर ब्राह्मण रज्जू भैया (प्रोफेसर राजेंद्र सिंह) सर संघ चालक बने और वे ब्राह्मण नहीं थे. आरएसएस के लिखित संविधान में ब्राह्मण होने को कोई श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं माना गया है. यह सच है कि RSS के शुरुआती लोगों में महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों की भरमार थी पर भारत का जो सार्वकालिक चरित्र है उसमें कोई भी ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण समुदाय को श्रेष्ठ नहीं मान सकता. यूं भी महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों में से ही मराठा साम्राज्य के अधिष्ठाता पेशवा लोग ब्राह्मण थे. किंतु न तो उन्होंने ब्राह्मणों को किसी कर से मुआफी दी न ही उत्तर के ब्राह्मणों के साथ उन्होंने कोई रियायत बरती. इसलिए यह आरोप भी बेबुनियाद साबित रहा.
हर सरकार में RSS के समर्थक
दरअसल संघ हर सत्ता में ऐसे लोग तलाशता है जो भारत की अखंडता, एकता और समदर्शिता को लेकर कटिबद्ध हों. उसे इससे कोई मतलब नहीं कि सत्ता में बैठा व्यक्ति किस दल का है या उसकी आस्था किस तरफ है. यह उसे जवाहर लाल नेहरू में भी दिखी और सरदार पटेल में भी. इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों में भी RSS ने इस वैविध्य को पहचाना. राजीव गांधी के समय सबसे पावरफुल अरुण नेहरू थे. बाक़ी वीपी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी उसके शत्रु नहीं हो सकते थे. डॉ. मनमोहन सिंह उसके लिए हर हाल में उपयोगी रहे. भले सोनिया गांधी को लेकर RSS सशंकित रहा हो पर मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां RSS की ताकत को बढ़ाती थीं. बाद में आई मोदी सरकार में उसने अपना प्रतिबिंब देखा.
भारतीयता के प्रति कट्टर रहता है संघ
हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले 11 वर्षों के कार्यकाल में सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी और RSS के प्रमुख मोहन भागवत में कभी-कभी खींचातानी दिख जाती है. लेकिन मोदी और भागवत दोनों जानते हैं कि दोनों का लक्ष्य एक है. RSS कभी-कभी धुर वामपंथी दिखती है. खासकर तब जब वह स्वदेशी की बात करती है. शिक्षा और चिकित्सा में एकरूपता की बात करती है. जब वह सभी नागरिकों के लिए समान संहिता की बात करती है. इसके अलावा RSS सरकार में पारदर्शिता की पूरी तरह हामी भरती है. किंतु उसके हिंदू और हिंदुत्त्व की परिभाषा सबके गले नहीं उतरती. भारत एक हिंदू बहुल देश है. भले उसे बहु संस्कृतियों, अलग-अलग रीति रिवाजों और परस्पर भिन्न विश्वासों वाला देश कहा जाए पर इसमें कोई शक नहीं कि कोई एक चीज जो उसे जोड़ती है वह है भारतीयता.
गैर हिंदुओं की भी वकालत
इस भारतीयता को लेकर RSS इतना कट्टर हो जाता है कि अक्सर राजनीतिक लोग उसे धुर दक्षिणपंथी कहते हैं. पाकिस्तान जैसे कुछ कट्टर मुस्लिम देश RSS को एक आतंकवादी संगठन बताने की गुहार संयुक्त राष्ट्र से करने लगते हैं. जबकि यह हास्यास्पद है क्योंकि RSS कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है न देश को तोड़ने अथवा सांप्रदायिक आधार पर बांटने की बात करता है. उसका साफ मानना है कि जो भी भारत में रहता है, वह भारतीय है. बशर्ते वह देश प्रेमी हो और भारतीय संस्कृति को पूरी तरह आत्मसात करता हो. यहीं पर उसका सेकुलर दलों से टकराव होता है, जबकि RSS भारत में हिंदू धर्म ही रहे, इस बात से राजी कभी नहीं रहा. RSS सुप्रीमो, जिन्हें सरसंघचालक कहा जाता है, मोहन भागवत ने यह नहीं कहा कि गैर हिंदू भारत छोड़ दें.
RSS ने हिरावल दस्ता नहीं तैयार किया
RSS की यह दृढ़ता उसे हर आरोप से बरी कर देती है. संघ पर जो आरोप लग सकता है, उस पर कोई उंगली नहीं उठाता और वह है कि अपने 100 वर्ष के सफर में उसने ऐसे वाक्पटु लोग नहीं तैयार किए जो विरोधियों के हर हमले का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे सकें. उसने युवाओं को खेल-कूद और शारीरिक गतिविधियों में तो लगाया मगर अपना थिंक टैंक तैयार करने की तरफ ध्यान नहीं दिया. यह सही है कि RSS में उच्च पदों पर बैठे लोग काबिल हैं, खूब सोच-विचार करते हैं. लेकिन जमीन के स्तर पर लड़ाई तो हिरावल दस्ता करता है. और इस लेबल पर RSS कमजोर है. उसकी शाखाएं बढ़ीं, उसके लोग बढ़े पर विरोधियों को काउंटर करने वाली पांत या तो संकुचित रही या फिर झुंझलाती रही. RSS को इस पर विचार करना चाहिए.