सिने संगीत आस्वाद : रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी

बात 34 साल पुरानी 1991 की है। उन दिनों नौकरी के सिलसिले में मेरी पोस्टिंग अहमदाबाद में थी। साहित्य, संस्कृति, सामाजिक मेलजोल और संगीत के रसिकों की नगरी के दफ्तर भी अपनी परंपराओं से अछूते नहीं थे। हर साल स्टाफ कल्याण समिति की ओर से वार्षिक कार्यक्रम आयोजित होता था, जिसे स्टाफ सदस्य किसी वार त्यौहार की ही तरह उत्सवी रंग में ढलते हुए धूमधाम से मनाते थे। उस साल दफ्तर के सांस्कृतिक कार्यक्रम का दायित्व मेरे पास था। लगभग सवा महीने पहले से ही शौकीन स्टाफ सदस्यों ने नृत्य, गायन और नाटक की प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। सारी तैयारियां जोर शोर से चल रही थी। इसी बीच एक दिन दफ्तर के साथी अपने साथ एक सीधे सादे से दिखने वाले उम्रदराज व्यक्ति को लेकर आए। ‘दुबे साहब ये तुलसी भाई हैं। इसी बिल्डिंग में नीचे जो बैंक है, उसमें काम करते हैं। ये भी अपने प्रोग्राम में गाना चाहते हैं’। मैंने तुलसी भाई से कहा, ‘यह हमारी संस्था का प्रोग्राम है, आपको अनुमति कैसे दे सकता हूं?’तब उन्होंने कहा, ‘सर, आपके प्रोग्राम में ऑर्केस्ट्रा वाले भी तो बाहर से आएंगे, नाटक के डायरेक्टर भी बाहर के हैं और कोरियोग्राफर भी बाहर के। मैं तो आपका सगा पड़ोसी हूं’। बात दिल को छू गई।

उसका परीक्षण करने हम बोर्ड रूम में पहुंच गए। मैंने पूछा, ‘क्या गाओगे? रफी, किशोर या मुकेश?’वह मुस्कुराते हुए बोला, ‘साब गीत ही सुन लीजिए’। उसने गला खखारा और शुरू हो गया, ‘रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी’। बोलचाल में बिल्कुल साधारण सी आवाज का आभास दिलाने वाले तुलसी के गले से साक्षात् सरस्वती स्वरूपा लता मंगेशकर की मीठी, महीन आवाज़ निकलती देख हम सभी स्तब्ध थे। उसने एक और गीतभी सुनाया, ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’। वह भी बढ़िया गाया। हमारे कार्यक्रम के खास आकर्षण के रूप में तुलसी का नाम बतौर अतिथि गायक फाइनल हो चुका था। अंततः कार्यक्रम की तारीख 9 मार्च 1991 आई। ढाई घंटे के उस कार्यक्रम में जब तुलसी ने अपने गीत सुनाए तो तालियों और सीटियों से सारा हॉल गूंज उठा।

आज पता नहीं तुलसी कहां है? इस दुनिया में है भी कि नहीं?नहीं पता। लेकिन जब भी ‘रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी’ सुनता हूं तुलसी याद आ जाता है। एक तुलसी ही याद नहीं आता, सदैव मीठे, नर्म, नाजुक, सरल धुनें रचने वाले चित्रगुप्त भी याद आ जाते हैं और याद आ जाती है लता जी के साथ उनके मधुर गीतों की श्रृंखला। इस शृंखला में हैं ‘कोई बता दे दिल है जहां, क्यूं होता है दर्द वहाँ’ (मैं चुप रहूँगी), ‘हाए रे तेरे चंचल नैनवा’ (ऊंचे लोग), ‘तड़पाओगे तड़पा लो, हम तड़प तड़प कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे’ (बरखा), ‘कारे कारे बादरा, जा रे जा रे बादरा, मेरी अटरिया ना शोर मचा’ (भाभी), ‘दगा दगा वई वई वई’ (काली टोपी लाल रुमाल), ‘जारे जादूगर देखी तेरी जादूगरी’ (भाभी), ‘सजना काहे भूल गए दिन प्यार के’ (चाँद मेरे आजा), ‘उठेगी तुम्हारी नज़र धीरे धीरे’ (एक राज) और ‘बलमा माने ना’ (ओपेरा हाउस) जैसे असंख्य गीत जिनमें लता-मंगेशकर और चित्रगुप्त की युति संपूर्ण मधुरता के साथ उपस्थित हुई है। निश्चित ही ‘रंग दिल की धड़कन’ को इस शृंखला का श्रेष्ठ गीत माना जा सकता है।

प्रतिभाशाली गीतकार और लेखक राजेंद्र कृष्ण का लिखा ‘पतंग’ फिल्म का यह गीत एक नेत्रहीन युवती (माला सिन्हा) पर फिल्माया गया है। उल्लेखनीय है कि नेत्रहीन नायिका निम्मी पर चित्रगुप्त पहले भी एक मधुर गीत ‘दिल का दिया जला के गया ये कौन मेरी तन्हाई में’ (आकाश दीप) रच चुके हैं। भले लता मदन मोहन को भाई और नौशाद को पिता तुल्य सम्मान देते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार बताती रही हो, भले ही संख्या की दृष्टि से उन्होंने सबसे ज्यादा गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए और गुणवत्ताजनक लोकप्रियता की दृष्टि से शंकर जयकिशन के लिए गाए हों, लेकिन यदि संगीत की एकमात्र कसौटी मेलोडी ही हो, तो अधिकतम स्ट्राइक रेट के साथ लता-चित्रगुप्त की जोड़ी ही शीर्ष पर रहेगी।

लता-चित्रगुप्त की इस युति की अलौकिकता सिने संगीत के रसिक श्रोताओं के लिए अब भी रहस्य और उत्सुकता का विषय बनी हुई है। गौर से देखें, तो इसके दो कारण माने जा सकते हैं। एक तो चित्रगुप्त अच्छे गीतकारों के साथ ही काम करते थे। राजेंद्र कृष्ण, मजरूह सुल्तानपुरी और प्रेम धवन उनके प्रिय गीतकार थे, जिनके साथ उन्होंने खूब काम किया। दूसरा कारण यह कि चित्रगुप्त हमेशा सरल धुन बनाते थे और न्यूनतम ऑर्केस्ट्रा का प्रयोग करते थे। यदि धुन अच्छी हो, शब्द सरल हों और गाने वाला उस्ताद हो, तो विशाल ऑर्केस्ट्रा की जरूरत ही क्या है? सच तो यह है कि वाद्य यंत्रों का युक्तिसंगत प्रयोग गीत की मधुरता को बहुगुणित कर देता है। संगीत के इस डूबते-धसाते दौर में ‘रंग दिल की धड़कन’ जैसे गीतों को याद करना, हमारे सिने-संगीत में निहित माधुर्य की उस परंपरा से जुड़ना है, जिसे लता, चित्रगुप्त और राजेंद्र कृष्ण की त्रिवेणी अपने रचनात्मक योगदान से समृद्ध किया करती थी।

रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी

याद मेरी उनको भी आती तो होगी

प्यार की खुशबू कहाँ आती थी कलियों से

हो के आई है हवा भी उनकी गलियों से

छू के उनके दामन को आती तो होगी

रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी

ओ ये बहारें ये समां सब उसके दम से है

वो पिया कुछ कुछ खफा रहता जो हमसे है

जान कुछ कुछ उसकी भी जाती तो होगी

रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी

जा री ऐ तितली नगरिया पी की तू जाना

हो भला तेरा ख़बर कुछ उनकी ले आना

तू वहाँ पर वैसे भी जाती तो होगी

रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी

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