
महाभारत का युद्ध कई भावनात्मक और प्रेरणादायक घटनाओं से भरा हुआ है, लेकिन उनमें सबसे मार्मिक क्षण वह था जब अर्जुन के वीर पुत्र अभिमन्यु की निर्मम हत्या कर दी गई। कम उम्र के अभिमन्यु को कौरवों के कई महारथियों ने एक साथ घेरकर क्रूरता से मार डाला। यह केवल एक युद्ध नायक का अंत नहीं था, बल्कि एक पिता के दिल में उठे क्रोध और प्रतिशोध की शुरुआत भी थी।
जब अर्जुन को अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार मिला, तो उन्होंने शपथ ली कि यदि वे अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध नहीं कर पाए, तो स्वयं जलती चिता में कूदकर प्राण त्याग देंगे। यह प्रतिज्ञा महज भावावेश में लिया गया निर्णय नहीं था, बल्कि धर्म और न्याय की रक्षा के लिए किया गया कठोर संकल्प था।
कौरवों ने अर्जुन की इस प्रतिज्ञा को गंभीरता से लिया और जयद्रथ की सुरक्षा के लिए गहरी रणनीति बनाई। उसे सेना के भीतरी घेरे में छिपा दिया गया और चारों ओर शक्तिशाली योद्धाओं का पहरा लगा दिया गया ताकि अर्जुन तक वह पहुंच न सके।
जैसे-जैसे दिन ढलने लगा और सूर्यास्त करीब आया, पांडव पक्ष की उम्मीदें टूटने लगीं। तभी श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य माया प्रकट करते हुए आकाश में ऐसी छाया कर दी कि सबको लगा सूर्यास्त हो चुका है। कौरवों में खुशी की लहर दौड़ गई और जयद्रथ यह सोचकर सुरक्षित स्थान से बाहर निकल आया कि अब उसका कोई नुकसान नहीं होगा। तभी श्रीकृष्ण ने माया हटाई और सूर्य पुनः प्रकट हो गया।
यही वह क्षण था जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण के संकेत पर अपना दिव्य बाण छोड़ा और जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया, जो उड़ता हुआ उसके पिता की गोद में जा गिरा। यह इसीलिए किया गया ताकि जयद्रथ के पिता के वरदान — कि यदि सिर धरती पर गिरा तो वध करने वाले का सिर फट जाएगा — को निष्प्रभावी किया जा सके।
यह घटना साबित करती है कि युद्ध में केवल वीरता ही नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता और ईश्वर की कृपा भी उतनी ही आवश्यक होती है। श्रीकृष्ण की चतुराई और अर्जुन की धनुर्विद्या ने मिलकर न केवल अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध पूरा किया, बल्कि अर्जुन को अपनी प्रतिज्ञा निभाते हुए आत्मदाह से भी बचा लिया।